SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 297
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ | 1 गुणस्थान पर आकर .. श्रावक बनकर किया । जैसा सिद्धान्त था वैसी तदनुरूप श्रद्धा जगाई और श्रद्धा के अनुरूप अपनी मान्यता- जानकारी आदि ज्ञानानुरूप बनाई । हिंसादि पाप कर्मों का जितना संभव हो सके उतना त्याग श्रावक ने अपनी मर्यादा में रहकर किया । लेकिन फिर भी कई पाप कर्म ऐसे हैं, जिनसे श्रावक के लिए सर्वथा बचना असंभव था । वे पाप कर्म गृहस्थ जीवन में चलते रहे । होते रहे । हाँ, श्रावक को श्रद्धा के आधार पर पापकर्मों के स्वरूप का अच्छी तरह ख्याल रहता है और सर्वथा छोडने की ही भावना रहती है। ऐसे पापों को करते हुए भी मन में पापों के प्रति कोई आनन्द नहीं रहता है । आदर - सद्भाव भी नहीं रहते हैं । और न ही तथाप्रकार के पाप कर्मों को करने में कोई मजा आती है। ऐसी उत्तम कक्षा की पापभीरुता बढती है। यही उस श्रावक की आत्मा को आगे बढाने में सहयोगी बनती है । मजा पापों के प्रति आदर-आनन्द और पाप की प्रवृत्ति में मंजा मानने की वृत्ति, पाप कर्म करके सुखी बनने की वृत्ति हमेशा मिथ्यात्वी - नास्तिक की होती है । ये मिथ्यात्वी के लक्षण में है । इसके ठीक विपरीत सम्यग् दृष्टि जीव के मन में अलग ही विचारधारा है। जो वह सम्यग् सच्ची विचारणा है । पापों को पाप ही मानता है । पापकर्मों को हेय त्याज्य ह े मानता है । पाप करके सुखी बनने के, सम्यक्त्वी पाप की प्रवृत्ति में - सुख -- आनन्द कभी भी नहीं मानता है । सर्वथा वर्ज्य है। इसी सर्वज्ञ वचन को सर्वथा सत्य स्वरूप स्वीकारता है। श्रद्धा रखता है। हाँ, इतना जरूर की चौथे गुणस्थान पर ही ऐसे ऊँचे भाव बन चुके थे। परन्तु उस समय चारों तरफ की परिस्थितियों में फँसा हुआ था। कुछ मोहनीय कर्मादि भारी कर्मों का उदय बडा भारी था। मानसिक कमजोरी • आदि कारणों के अधीन होकर पाप प्रवृत्ति का त्याग नहीं कर पाया। परन्तु जैसे ही पाँचवे गुणस्थान पर जीव आया कि पहले पापों का त्याग करने की प्रवृत्ति शुरू कर दी। लेकिन पाँचवे पर भी मर्यादा रही। सभी पाप सर्वथा नहीं छोड़ पाया परिस्थिति वश । गृहस्थाश्रम - पत्नी - पुत्र परिवारादि तथा आजीविकादि के आधीन होकर परवशता में भी पाप प्रवृत्ति करनी पडी.. की भी सही, लेकिन उसमें रस नहीं रहा । आनन्द सुख या मजा नहीं मानी । यह विशेषता श्रद्धा - सम्यग् दर्शन के कारण रही। फिर भी ऐसे श्रावक के रोज के मनोरथ बडे, ऊँचे रहे आगे बढकर साधु बनने के ऊँचे भाव रहे। ऐसी ऊँची भावना में कभी श्रावक सोचता है कि... कहिये परिग्रह छांडं दे, लेशुं संयम भार । श्रावक चिंते हुं कदाचित करीश संथारो सार ।। साधना का साधक - आदर्श साधुजीवन ७०३
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy