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________________ दीक्षा-प्रव्रज्या का स्वरूप - ब्राह्मण संस्कृति प्रधान हिन्दु धर्म में, संन्यास कहते हैं। जैन धर्म में दीक्षा प्रव्रज्या कहते हैं । इन दोनों की यदि तलना की जाय तो आसमान-जमीन का अन्तर इसमें स्पष्ट दिखाई देता है। धर्मशास्त्रों के सिद्धान्तों पर आधारित आचार संहिता के बल पर दीक्षा की समाचारी बनी है। तदनुरूप ही आचार विचार की संयोजना हुई है। उन आचारों में-अहिंसा-सत्य-अस्तेय-ब्रह्मचर्य- अपरिग्रहादि सिद्धान्तों की प्राधान्यता है। इन सिद्धान्तों को जीवन में चरितार्थ करते हुए कैसे पूर्णरूप से, शुद्धरूप से पालना यह देखना है। सर्वथा पाप कर्मों से कैसे बचना, नए पाप सर्वथा न करना तथा पुराने किए हुए पाप कर्मों का कैसे क्षय करना यह प्रधान लक्ष्य रहता है। चरमसाध्य मोक्ष की प्राप्ति का है अतः उसके अनुरूप चारित्र धर्म है । साधनारूप आचरणा ऐसी होनी चाहिए जो साध्य के अनुरूप पूरक हो । साध्य की प्राप्ति करा सके। इसलिए साध्य का लक्ष्य रखकर वैसा अनुरूप चारित्र धर्म होना चाहिए । जैन शासन में यह सिद्धान्त यथार्थ चरितार्थ हुआ स्पष्ट दिखाई देता है । जबकि मोक्ष का सिद्धान्त यथार्थ सिद्ध करके तदनुरूप संन्यासादि इतर धर्मों में सर्वथा शुद्ध लगता है कि नहीं यह देखने जैसा है । विचारणीय है । इसके लिए आवश्यक है कि सर्व प्रथम मोक्ष का स्वरूप कैसा है यह निर्धारित करना चाहिए । मुक्ति का चरम सत्यस्वरूप निश्चित होना जरूरी है। उसके पश्चात् ही तदनुरूप साधना निश्चित होती है । तब जाकर साधक का सही स्वरूप सत्य ठहरता है। पाँचवे से छठे गुणस्थान पर आरोहण. आध्यात्मिक विकास की श्रेणि पर चढता हुआ और क्रमशः आगे बढता हुआ जीव पाँचवे देशविरति गुणस्थान पर जो विरतिधर श्रावक बना था वहाँ से एक कदम आगे बढकर छठे प्रमत्त विरतगुणस्थान पर पहुँचता है । जैसे एक ही स्कूल में पढ़ते हुए पाँचवी कक्षा से कोई विद्यार्थी पास होकर छट्ठी कक्षा में जाता है । उसी तरह मोक्षार्थी मुमुक्षु आत्मा राग-द्वेष-विषय-कषाय की प्रवृत्ति के पापों की मात्रा कम करके पाँचवे गुणस्थान पर आरूढ होता है । देशविरतिधर श्रावक बनता है । वहाँ पर विरतिधर्म का आचरण करता हुआ.. अनेक पापों को न करने की प्रतिज्ञा करता है । पापों को त्याग करता है। लेकिन गृहस्थाश्रम के कारण सभी पापों का संपूर्ण त्याग नहीं हो पाता है। हाँ, पाप छोडने ही चाहिए, छोडने जैसे ही हैं, पाप हेय-त्याज्य ही हैं । ऐसे संस्कार-भाव, और श्रद्धा तो जीव ने चौथे गुणस्थान पर .. जगा लिए थे। उसी भाव का अमलीकरण-आचरण पाँचवे ७०२ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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