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की सिद्धियाँ प्राप्त करने के लिए तीर्थंकर भगवंतों को भी दीक्षा लेनी अत्यन्त आवश्यक
दीक्षा का महत्व
उपरोक्त वर्णन से ही आप समझ गए होंगे की दीक्षा-चारित्र धर्म का विरति प्रधान त्याग धर्म का कितना ज्यादा महत्व है ? ऐसी महिमा दीक्षा की गाते हुए महापुरुषों ने लिखा है कि
दीक्षा मोहहरी महोदयकरी, दीक्षा त्रिलोकार्चनी; दीक्षा शुद्धिकरी विषादहरणी, दीक्षा च शिक्षावनी। दीक्षा श्रीजिनसेविता गुणगणैर्दीक्षा सदा पूरिता;
तां श्री क्षान्तियुतां भवान्तपदवीमाराध्य जग्मुर्जनाः॥ . ऐसी दीक्षा मोह माया-ममत्व का हरण करनेवाली है । अर्थात् मोहनीय कर्म का क्षय करनेवाली है । आत्मा का महान उदय-अभ्युदय करनेवाली दीक्षा है । सचमुच यह दीक्षा तीनों लोक में पूजित-सन्मानित है। यह दीक्षा आत्मशुद्धि करनेवाली है, संसार जन्य सभी विषाद-खेद-दुःखों को दूर करनेवाली है। ऐसी ही दीक्षा शिक्षा की आधारभूमि है । दीक्षा का प्रतिपादन प्ररूपणा करनेवाले तीर्थंकर भगवंतों ने मात्र उपदेश करके दूसरों को दीक्षा लेने के लिए कह दिया है ऐसा भी नहीं है । उन्होंने स्वयं पहले यह दीक्षा अंगीकार की है। स्वीकार की है। आचरण किया है फिर जगत को बताई है। सचमुच ऐसी दीक्षा अनेक गुणों के समूहों से भरी हुई है। गुणों की खान है। ऐसी क्षमा-समतादि गुणों से परिपूर्ण दीक्षा जो भव संसार की अन्तिम पदवी स्वरूप है । इसकी आराधना-उपासना करके अनन्त जीव मोक्ष में गए हैं। अपना कल्याण कर चुके हैं। और भावि भविष्य के अनन्त काल में जितने भी मोक्ष में जाएँगे वे सभी दीक्षा ग्रहण करके ही जाएँगे।
ऐसी श्री तीर्थंकर प्ररूपित दीक्षा की महिमा अनन्तगुनी है । त्यागप्रधान ऐसी दीक्षा का स्वरूप जैन धर्म के सिवाय संसार के अन्य किसी भी धर्मों में नहीं मिलता है। संभव ही नहीं है। दीक्षा के लिए प्रव्रज्या शब्द प्रयुक्त है। इसके आगे पूजनीय पूज्यवाची-आदरवाची भागवती शब्द लगाकर.. भागवती प्रव्रज्या” कहते हैं । सतत ऐसी दीक्षा की प्राप्ति जनम-जनम हो इसके लिए प्रार्थना करनी चाहिए।
साधना का साधक - आदर्श साधुजीवन
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