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ने इसी त्यागमार्ग का स्वीकार किया और वैसा ही त्यागमय, त्यागप्रधान जीवन जीकर बताया । वैसे ही त्याग के धर्म का प्रतिपादन किया है । धर्मस्थापना में त्याग धर्म = अर्थात् साधुधर्म सर्वसंग परित्यागरूप विरती प्रधान धर्म ही जगत को दिखाया है। इसीलिए दीक्षा - चारित्रधर्म अस्तित्व में आया। और आज हजारों वर्षों के बाद भी आचार परंपरा में विरतिप्रधान त्यागधर्म जगत में प्रचलित हुआ है। जिसका जैन साधु आज भी सुंदर पालन करते हैं, जैन साधु त्याग की जीवन्त मूर्ति है। उनके जीवन में भोग - भोगेच्छा - विलासिता, ऐश्वर्य - विलासिता का स्पर्शमात्र भी नहीं है । वे त्यागमूर्ति हैं । त्यागमय उनका आदर्श जीवन है, अतः संसार में कहा जाता है कि त्याग का ऊँचा आदर्श देखना हो तो जैन साधु को देखना चाहिए। इसका सारा श्रेय जिनेश्वर तीर्थंकर भगवंतों को है ।
दीक्षा के साथ ही मन: पर्यवज्ञान
तीर्थंकर भगवान जो भी दीक्षा लेते हैं उन्हें दीक्षा लेते ही चौथा मनः पर्यवज्ञान भी प्राप्त होता ही है । यह अनिवार्य नियम ही है कि दीक्षा लेते ही चौथा मनः पर्यवज्ञान प्राप्त होता है । मति आदि तीन ज्ञान तो पहले से जन्म से ही है, और चौथा मनः पर्यव ज्ञान भी दीक्षा लेते ही होनेवाला है। सोचिए ! तीर्थंकर भगवंतों के लिए यह एक अद्भुत अनोखी शाश्वत व्यवस्था है कि.. जब वे दीक्षा ग्रहण करेंगे.. तब उनको निश्चित रूप से मनः पर्यवज्ञान प्राप्त होगा ही । इस प्रकार के मनःपर्यंव ज्ञान से जगत् के समस्त संज्ञी पंचेन्द्रिय मनवाले समनस्क जीवों के मनोगत भावों को जान सकते हैं, समझ सकते हैं ।
आखिर मनः पर्यवज्ञान का दीक्षा - चारित्र के साथ ऐसा क्या घनिष्ठ संबंध है ? कैसा अद्भुत कार्यकारण भाव संबंध है ? जन्य - जनकभाव संबंध है। जब तक तीर्थंकर प्रभु संसार का त्याग नहीं करते हैं, दीक्षा नहीं ग्रहण करते हैं, तब तक मनःपर्यव ज्ञान होने की कोई संभावना ही नहीं है। आज दिन तक किसी भी तीर्थंकर भगवान को गृहस्थाश्रम के संसार में रहे - रहे बैठे-बैठे मनः पर्यवज्ञान प्राप्त हुआ नहीं है। अरे, ऐसा कोई अच्छेरा-आश्चर्यकारी घटना भी नहीं घटी है कि गृहस्थाश्रम में बैठे बैठे मनः पर्यवज्ञान प्राप्त हुआ हो । अपवाद के रूप में भी किसी तीर्थंकर को ऐसा नहीं हुआ है। गृहस्थाश्रम में बैठे बैठे मनःपर्यव ज्ञान भी नहीं हुआ, और केवलज्ञान भी नहीं हुआ। जब वे दीक्षा लेंगे तब ही मनःपर्यवज्ञान प्राप्त होगा। और साधु जीवन में साधना करते हुए चारों घनघाती कर्मों का सर्वथा संपूर्ण क्षय करेंगे तभी ही केवलज्ञान प्राप्त होगा। अतः इन दोनों प्रकार
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आध्यात्मिक विकास यात्रा