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________________ ऐश्वर्य विलासिता क्यों? मान लो की वे दीक्षा न ग्रहण करे और गृहस्थाश्रम में ही रहकर धर्मोपदेश करे, धर्म स्थापना करे तो क्या आपत्ति है ? ज्ञान तो उनके पास भी पूरा ही है। प्ररूपणा–प्रतिपादन में कोई क्षति नहीं रहती है। गृहस्थाश्रम में तो वैसे भी राजराजेश्वर महाराजाधिराज है ही .. सर्वजन मान्य भी है ही। फिर मान लो घर में ही एक तरफ अलग से रहकर- वैसे वैभवी-वैभवशाली, ऐश्वर्यशाली भगवान बनकर धर्मोपदेश नहीं कर सकते हैं? कई धर्मवाले अपने अपने भगवानों को वैभवशाली, ऐश्वर्यशाली, भोगी, विलासी बताकर ही उनके पास धर्म प्रवर्तन-धर्मप्रतिपादन करवाते हैं। श्री राम, श्रीकृष्ण, स्वामिनारायण पंथवालों ने भी अपने भगवान वैसे माने हैं । यहाँ कर्नाटक राज्य में बसवेश्वर-बसव को भगवान मानकर उनको भी वैभवी, ऐश्वर्यशाली, विलासी-भोगी बताया है । वैसा वर्णन बहुत ज्यादा किया है । इसलिए वैसा ही चित्रण किया है । और वे धर्मस्थापना धर्मोपदेश करते हैं। जैसे वे स्वयं भगवान है, वैसा ही उनका उपदेश है। उस धर्मोपदेश में भी त्याग की बात ही नहीं आएगी। अतः त्यागप्रधान धर्म वे नहीं बताएँगे। भोगप्रधान धर्म और भोगप्रधान भगवान वैसी विचारधारा उनकी है । ऐसी ही विचारधारा पर चलनेवाले आज भी कई भगवान है । आज जो भगवान बनते हैं, वे वैभवशाली-ऐश्वर्यशाली विलासी, भोगी जीवन जीने की ही ज्यादा चेष्टा करते हैं। पुणे में हुए रजनीश इसी रास्ते पर चलें और खूब ऐश्वर्य-भोगने की वैभवी बनने की अपनी लालसा, भोगलालसा के आधार पर जीने की, भोगों की आधीनता जगत को दिखाई । वैसा खूब रंगीला-विलासी जीवन जगत के सामने दिखाया। क्या वे इतना भी नहीं जानते थे कि.. यह सारा भोग विलास, ऐश्वर्य-वैभव सब क्षणिक है, नाशवंत है, अल्पकालिक है, भौतिक है, पौगलिक है। इससे क्या फायदा? भोग कितने भी भोगते जाओ.. आखिर न तो कोई तृप्ति होनेवाली है, और न ही कोई संतोष होनेवाला है। इससे कोई फायदा नहीं है । आसक्ति मिटनेवाली नहीं है । भोग तो क्या भोगे जाय? हम ही पूरे भोगे चले जाएंगे। यही हालत इन भोग-भोगियों की, भोगवादियों की हुई है। त्याग धर्म की आवश्यकता इसके बजाय चारित्र धर्म का मार्ग सदा ही श्रेयस्कर है। संसार के त्याग का दीक्षा ग्रहण स्वरूप त्यागधर्म का मार्ग सर्वश्रेष्ठ श्रेयस्कर है । जैन तीर्थंकर अरिहंत भगवानों साधना का साधक - आदर्श साधुजीवन
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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