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________________ उपसर्ग सहनादि करके चारों घाती कर्मों का क्षय करके कैवल्य की प्राप्ति करने के प्रसंग का । वलज्ञान कल्याणक कहते हैं। ५) अन्त में शरीर का त्याग करके आठों (सर्व) कर्मों का क्षय करके निर्वाण प्राप्त करके मोक्ष में जाने के प्रसंग को निर्वाण कल्याणक कहत हैं। इस तरह भूत-वर्तमान-भविष्य तीनों कालों में अनन्त ही तीर्थंकर भगवंतों के जीवन में ये पांच कल्याणक प्रसंग अनिवार्य रुप से होते ही रहते हैं। अतः शाश्वत स्वरुप है, इन पांचों कल्याणक प्रसंगों का । इन पांच में दीक्षा भी एक है अतः निश्चित रुप से जैन धर्म के तीर्थंकर भगवान दीक्षा ग्रहण करते ही है। तत्पश्चात् ही वे भगवान बनेंगे। भगवान बननेवाले कभी घर में बैठे-बैठे केवलज्ञान नहीं पाते हैं। भगवान न बननेवालों के लिए ऐसा कोई शाश्वत नियम नहीं है। भरत जैसे चक्रवर्ती आदि कई घर में गृहस्थाश्रम में रहते हुए ही केवलज्ञान पा गए। लेकिन दीक्षा ग्रहण करने के पश्चात् ही मोक्ष में जाते हैं। आखिर मोक्ष-मुक्ति के लिए दीक्षा लेना अनिवार्य हैं। चाहे कोई भी हो । राजा हो या महाराजा, स्त्री हो या पुरुष, जिस किसीको भी मोक्ष पाना हो उनके लिए दीक्षा ग्रहण करना अनिवार्य है। ऐसा जैन धर्म का अद्भूत-अनोखा नियम है, सिद्धान्त है। दीक्षा का इतना बड़ा महत्व होने के कारण सेंकडो स्त्री-पुरुष आज की तारीख में भी दीक्षा लेते हैं। संसार का परित्याग करते हैं। तप और त्याग के पाया (फाउन्डेशन) पर जैन धर्म की इमारत सुरक्षित निर्माण हुई है अतः आज दिन तक बिना डिगमिगाए खडी है। दीक्षा की इतनी प्राधान्यता होने के कारण ही असंख्य वर्षों के बाद भी दीक्षा ग्रहण की प्रक्रिया चल रही है। विश्व के समस्त धर्मों के सभी भगवानों के बीच एक मात्र जैन तीर्थंकर भगवंत ही दीक्षा लेकर भगवान बने हैं। अन्य कोई भी भगवान ऐसी प्रवृज्या ग्रहण करके भगवान नहीं बने हैं। विश्व के धर्मों का विश्लेषण २ विभाग में कर सकते हैं। १) भोगवादी नीतिवाले धर्म, तथा २) त्याग वृत्तिवाले धर्म। भोगवादी नीतिवाले धर्म के भगवानों को वैभवी ऐश्वर्य युक्त दर्शाए गए हैं। जबकि त्याग वृत्ति की नींव वाले धर्मों में भगवान को विरक्त वैरागी दर्शाएं गए हैं। जैन तीर्थंकर भगवान गृहस्थ जीवन में राजामहाराजा-चक्रवर्ती थे। अमाप धन-सम्पत्ति एवं समृद्धि युक्त वैभवी ऐश्वर्यवाले ही थे। छह खंड के मालीक चक्रवर्ती जो हजारों राजाओं के सर्वोपरि महान राजा थे उनके पास क्या कमी थी? वे ऐसे वैभवी जीवन में भगवान नहीं बनें। ऊपर से राज-पाट-वैभव ऐश्वर्य एवं पत्नी-पुत्र-परिवारादि सब कुछ त्याग करके...संसार से महाभिनिष्क्रमण करके प्रवृज्या ग्रहण करके जंगलों में निकल पडे । तप-ध्यानादि साधना द्वारा कर्मक्षय करके स्वयं भगवान बने। तथा तीर्थंकर भगवान बनकर भी उन्होंने सबको दीक्षा लेने के लिए उपदेश अपनी देशना में देते रहे। परिणाम स्वरुप सेंकडों स्त्री-पुरुष दीक्षा ग्रहण करते रहे। इतना ही नहीं, तीर्थंकर भगवन्तों ने जिस चतुर्विध संघ की स्थापना की उसे भी श्रमण प्रधान संघ रखा । मोक्षलक्षी धर्म में चारित्र धर्म की प्राधान्यता ही अनिवार्य रुप से उपयोगी एवं उपकारी है। इस आधार पर ही असंख्य वर्षों के बाद भी आज दिन तक दीक्षा ग्रहण की परंपरा अखंड रुप से चल रही है। ६९८
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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