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________________ यह निर्विवाद है। परन्तु आनन्द-कामदेवादि श्रावकों का श्रावकाश्रम का जीवन इतना ऊँचा आदर्श जीवन था कि जिनका स्मरण कर आज भी सदियों तक इस आदर्श को दृष्टि समक्ष लक्ष्य के रूप में रखकर प्रगति की जा सकती है। वैसा जीवन बनाया जा सकता तीर्थंकर भी अनिवार्य रूप से दीक्षा लेते हैं अन्तिम जन्म में निश्चित रूप से तीर्थंकर भगवान बननेवाले सभी तीर्थंकर माता के गर्भ में थे तब से ही मति-श्रुत-अवधि इन तीनों ज्ञानों से युक्त ही थे । जन्मजात तीन ज्ञान पूर्ण-संपूर्ण होने के पश्चात् उन्हें दीक्षा लेने की क्या आवश्यकता पडी? क्या वे दीक्षा न लेते तो भगवान नहीं बन पाते? जैन धर्म के सिवाय किसी अन्य धर्म के भगवान दीक्षा-चारित्र लेते हैं ऐसा वर्णन उनके धर्म ग्रन्थों में है ही नहीं । न तो भगवान राम ने दीक्षा ली हो, सर्वसंग का त्याग कर घर संसार छोडकर दीक्षा-चारित्र लेकर साधना की हो ऐसा कोई वर्णनवाल्मीकि रामायण में नहीं है । (हाँ, जैन रामायण में भगवान श्रीराम दीक्षा लेकर साधना करके मोक्ष में जाते हैं ऐसा वर्णन है) भागवत् पुराण में भी भगवान श्रीकृष्ण को संसार का त्याग करके सर्वसंग मुक्त चारित्रधर्म दीक्षा का जीवन अंगीकार करते हुए नहीं दर्शाया है । लीला प्रधान जीवन श्रीकृष्ण का बताकर उन्हें सब प्रकार की लीला करते हुए बताया है । विलासी जीवन का चित्रण किया है । शिवजी शंकर का चरित्र तो अनोखा ही बताया है । उनके जीवन में भी महाभिनिष्क्रमण करके संसार को छोडकर चारित्रग्रहण करते हुए नहीं बताया गया है। शिवपुराण में शिव-शंकर का जीवन पढने पर सेंकडों आश्चर्य खडे हो जाते हैं। उनमें भगवान स्वरूप मानने में सेंकडों प्रश्न खडे हो जाते हैं ? परमात्मा-परमेश्वर की कसौटी पर कसने से भगवन्त के अनुरूप चारित्र-दीक्षा का सर्वथा अभाव दृष्टिगोचर होता है । ब्रह्माजी-विष्णु आदि के जीवन में भी वैसा चारित्र का कोई वर्णन उपलब्ध नहीं है । अतः हिन्दु धर्म में भगवान् बनने के लिए चारित्र-धर्म अनिवार्य नहीं बताया है । इस्लाम धर्म में कुरानादि धर्मग्रन्थों में चारित्र धर्म-दीक्षा की कोई विचारणा ही नहीं है। ख्रिस्ती धर्म में बाइबिल आदि धर्मग्रन्थों में भी दीक्षा-संसार त्याग-आदि की बातें मानी ही नहीं गई है । बौद्ध धर्म में... तथागत भगवान श्री बुद्ध ने संसार का त्याग किया है । महाभिनिष्क्रमण करके निकले जरूर हैं, परन्तु उनके चारित्र धर्म का स्वरूप उनकी विचारधारानुरूप है । संसार से विरक्त जरूर है। ६९६ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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