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________________ इस तरह बिना मन के, भाव के श्रावक संसार में रहता है। मन से तो मुक्ति की तीव्र अभिलाषा-तमन्ना रहती है । मन संसार छोड़ने के लिए, चारित्र की प्राप्ति के लिए तडपता है और शरीर-देह से उन्हें संसार में रहना पड़ता है। अतः मजबूरी से रहते हैं। आसक्ति से तृष्णा से नहीं रहते हैं। ऐसी श्रावक जीवन की मनोभावना तीव्रता बढने पर .. छठे गुणस्थान पर पहुँचने की भूमिका बनती है। आनन्द-कामदेवादि श्रावक ढाई हजार वर्ष पूर्व.. श्री वीर प्रभु के परम उपासक श्रमणोपासक आनन्द, कामदेव, शंख, शतक, महाशतकादि १० श्रेष्ठ श्रावक थे। ४५ आगमों में ११ अंगसूत्रों में ७ वाँ अंग सूत्र उपासक दशांग सूत्र है। उपासक शब्द श्रावक के अर्थ में प्रयुक्त है। इस आगमशास्त्र में आनन्द श्रावकादि १० श्रावक के जीवन चरित्रों का अद्भूत वर्णन है । उन्होंने कैसा जीवन जिया? किस तरह गृहस्थाश्रम में वे व्रतधारी शुद्ध श्रावक बनें? उनका त्याग कैसा था? कितना था? आराधना-साधना उन्होंने कैसी की? कामदेव नामक श्रावक ने तो अपनी पौषधशाला में पौषध में ध्यान में रहकर अपनी पत्नी की तरफ से तथा आए हुए अन्य उपसर्गों को कितनी दृढता के साथ सहन किया? इत्यादि अद्भूत वर्णन है। आनन्द श्रावक के त्याग का वर्णन सुनते ही हमारे रोम रोम खडे हो जाय और अहोभाव से मन नतमष्तक हो जाय । एक साधु की तुलना में भी श्रेष्ठ कक्षा का उनका त्याग गिना जाता है । तथा व्रत पालन की दृढतादि अद्भुत कक्षा की देखी जाती है । इतना अद्भूत त्याग तथा व्रतादि देखने से लगता है कि साधुता की, भाव.कक्षा की भूमिका भी अद्भुत आई हो । स्वयं गणधर गौतमस्वामी जब आनन्द के घर भिक्षार्थ पधारे .. तब आनन्द के तप-त्यागादि धर्म की अनुमोदना की है। आनन्द को श्रावकाश्रम में रहते हुए ही अवधिज्ञान प्राप्त हुआ था। आश्चर्य तो इस बात का है कि इतना सब कुछ त्यागादि होते हुए भी आनन्द श्रावक दीक्षा क्यों नहीं ले सका? कामदेव श्रावक पत्नी के कारण खडी हुई विपरीत परिस्थिति के बंधन में बंधे हुए थे परन्तु आनन्द श्रावक के लिए क्या परिस्थिति थी? अवधिज्ञान हो जाने के पश्चात् भी आनन्द दीक्षा क्यों न ले सका? यह खोज का विषय जरूर है। अत्यन्त उत्कट भावना और वैसा तदनुरूप जीवन बना लेने के पश्चात् भी गृहस्थाश्रम जीवन की ऐसी किसी प्रकार की परिस्थिति के आधीन थे जिसके कारण वे संसार से न छूट सके साधना का सापक-आदर्श साधुजीवन ६९५
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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