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________________ अनिवार्य है । चारित्र संसार के त्यागपूर्वक ही आता है। संसार के प्रति राग-आसक्ति होनी ही नहीं चाहिए । जैन श्रावक मात्र में चौथे सम्यग् दर्शन के गुणस्थान से ही संसार के प्रति अरुचि-अनिच्छा-उद्वेगभाव के बीज बोए जाते हैं । अतः चौथे गुणस्थान पर श्रद्धालु बनने से ही मुक्ति की अभिलाषा तथा संसार के प्रति अरुचि जागृत हो ही जाती है। क्योंकि संसार के प्रति रुचि-प्रेम-आसक्ति और मोक्ष की अभिलाषा परस्पर विरोधि वृत्ति है । अतः संसार की तीव्र रुचि जीव को मुक्तिमार्ग पर अग्रसर होने में रोडे डालती है। बाधक बनती है । मुक्ति के मार्ग पर सतत आगे बढ़ने की तमन्नावाला श्रावक होता है । श्रावक कक्षा में भी सम्यग्दृष्टि जीव संसार बढे, संसार की वृद्धि हो, इसके प्रति उत्सुक नहीं होता है । क्योंकि अनन्त भूतकाल संसाररुचि बनकर बिताते आए हैं। मिथ्यात्व में सदा ही संसार रुचि रही थी। संसार की वासना अन्दरूनी-आन्तर मन में पड़ी हुई थी। अतः मिथ्यात्व में संसार खूब बढाया, खूब बिगाडा, तथा खूब संसार की मजा लूटी। संसार के सुख-भोग काफी भोगे। मिथ्यात्व के घर में रहकर पाप में खूब मजा मानी-भोगी। इस तरह पाप कर्मों में सुख की वृद्धि रखकर इस विपरीत वृत्ति से काफी मजा पाप करते हुए मानी, भोगी । परिणाम स्वरूप मिथ्यात्व के भाव की खूब पुष्टि की। मिथ्यात्व पापकर्मों में मजा-सुख भोगने से ज्यादा पुष्ट-मजबूत होता ही जाता है। इसीलिए पाप में सुख, पाप प्रवृत्ति में मजा, ये विचार और ऐसी करणी सर्वथा छोड देनी चाहिए । यही ज्यादा हितावह है। चौथे गुणस्थान पर सम्यग् दर्शन पाने के पश्चात् अब विचारधारा-मानस-बुद्धि सर्वथा बदल जाती है। परिणामस्वरूप संसार के प्रति रुचि-आसक्ति काफी घटती जाती है। दूसरी तरफ मोक्षप्राप्ति की अभिलाषा-रुचि तीव्र-तीव्रतर बढ़ती ही जाती है । मुक्ति की तमना बलवत्तर बनती है । यद्यपि पाँचवे गुणस्थान पर व्रती विरतिधर बनता है और संसार में ही रहता है । गृहस्थाश्रमी बनकर ही जीता है परन्तु अब भावना-मन सर्वथा बदल जाता है। मजबूरी है और संसार में रहना पड़ता है। संसार में जबरदस्ती रहना पड़ता है। या किसी परिस्थिति के, संयोगों के आधीन बनकर रहना पडता है इसलिए विकल्प नहीं है। ऐसी मजबूरी से संसार में रहना पड़ता है। जैसे एक नव परिणीत यवती को पति के व्यापारार्थ विदेशगमन प्रसंग पर बिना किसी विकल्प के मजबूरी से घर में रहना पडता है । क्या करें? बहुत तीव्र इच्छा होते हुए भी नहीं जा सकती है अतः रहने के लिए मजबूरी है। एक नोकर को काम नहीं भी करना है फिर भी क्या करे? मजबूरी है। . ६९४ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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