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प्रदान करना है । पिछले जन्म में जीव ने जिस प्रकार का, जितने वर्षों का आयुष्य कर्म बांधा हो उसके अनुसार वर्तमान जन्म में उतने वर्षों का काल मिलता है । मरुदेवी माता को.. एक तरफ केवलज्ञान की प्राप्ति होना.. और दूसरी तरफ आयुष्य कर्म की समाप्ति होना ये दोनों कार्य एक साथ एक ही अन्तर्मुहूर्त के काल में हो गए। अतः माताजी को केवली सर्वज्ञ के रूप में जीने का, यहाँ इसी देह में धरती पर रहने का, ज्यादा समय ही नहीं मिला। सोचिए ! केवलज्ञान-दर्शन-वीतरागता तथा अनन्त शक्ति का सामर्थ्य प्राप्त होने के बाद भी आयुष्य बढा नहीं सके तो फिर हमारे जैसे सामान्य कक्षा के जीवों की तो बात ही कहाँ हो सकती है ? अतः आयुष्य कर्म जो पिछले-पूर्व जन्म में बांधा है उसमें वृद्धि के लिए किसी भी प्रकार का कोई परिवर्तन हो ही नहीं सकता है । हाँ, भिन्न-भिन्न प्रकार के उपक्रमों के लगने से आयुष्य कम हो सकता है । बीच में ही टूट सकता है। लेकिन बढना संभव नहीं है।
ऐसे समय में एक ही अन्तर्मुहूर्त में केवलज्ञान और मोक्षगमन दोनों क्रियाएँ एक ही साथ हो गई । बीच में समय बहुत कम रहा । अतः अन्तर्मुहूर्त कहा है । अर्थात् मुहूर्त के अन्दर के ही काल में । इस तरह अन्तर्मुहूर्त काल में द्रव्य दीक्षा-वेषादि धारण करना उनके लिए संभव नहीं था। इस दृष्टि से लोक व्यवहार में कहा जाता है कि.. मरुदेवामाता बिना दीक्षा लिए ही मोक्ष में गई । परन्तु भाव चारित्र की काफी ऊँची कक्षा प्राप्त हुई थी। अतः भाव चारित्र की ऊँची कक्षा से मुक्ति की प्राप्ति हुई थी। द्रव्य बेष की अपेक्षावाला चारित्र उनके पास नहीं था। सर्वथा चारित्र का अभाव भी नहीं था । मुक्ति की प्राप्ति चारित्र धर्म के आधार पर ही हुई थी। अतः यह नियम निश्चित ही है कि बिना चारित्र के आज तक कोई मोक्ष में गया नहीं है और भविष्य में भी बिना चारित्र स्वीकार किये कोई मोक्ष में जाएगा ही नहीं। अतः यह निश्चित है कि मुक्ति का आधार चारित्र पर है । और परंपरा से चारित्र का आधार श्रद्धा पर और श्रद्धा-सम्यग्-दर्शन का आधार सम्यग्ज्ञान पर है।
मोक्षगामी-चारित्रप्रिय हो
जो जो मोक्षगामी भव्य जीव है उन सब को चारित्र प्रेमी बनना ही चाहिए । चारित्र प्राण से भी ज्यादा प्रिय होना चाहिए। मोक्षार्थी जीव चारित्र धर्म पर कभी भी द्वेषबुद्धिवाला-दुर्भाववाला नहीं होना चाहिए। मोक्षाभिलाषा तथा संसार से उद्वेग
साधना का साधक - आदर्श साधुजीवन
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