________________
अध्याय ११
|साधना का साधक - आदर्श साधुजीवन
00000mgaonommameeMOONAMORON
सर्वथा शुद्ध-सिद्ध-बुद्ध मुक्त ऐसे अनन्त सिद्धात्माओं के अनन्तगुणों को अनन्तबार नमस्कार करते हुए... साधुता के सोपान पर आरोहण___ जीव पहले गुणस्थान पर सर्वथा विपरीत वृत्तिवाला मिथ्यात्वी था। चौथे गुणस्थान पर आकर सम्यग्दृष्टि सच्चा श्रद्धालु बना । पाँचवे गुणस्थान पर चढकर धर्म का आचरण करनेवाला सच्चा धर्मिष्ठ-आराधक बनता है। इस तरह ४ थे, ५ वें इन दोनों गुणस्थान पर श्रावक बनकर रहा। अब श्रावक की भूमिका से भी आगे बढ़ना है। क्योंकि श्रावकजीवन के धर्म की कितनी भी उत्कृष्ट कक्षा की भूमिका प्राप्त की हो फिर भी वह पूर्णस्वरूप नहीं है । अभी भी अपूर्णस्वरूप है । सिद्धि-मोक्ष का स्वरूप प्राप्त करने के लिए.. साधु बनना अत्यन्त आवश्यक है । अतः पाँचवे गुणस्थान के सोपान से आगे एक सोपान और ऊपर चढते हुए छठे गुणस्थान पर पहुँचना है । छट्ठा गुणस्थान साधु का है । अगर चौदह गुणस्थानों को दो विभागों में विभाजित करना हो तो १ से ५ तक के ५ गुणस्थान गृहस्थी-संसारी के हैं। और ६ से आगे के सभी गुणस्थान संसार के त्यागी साधु के हैं। छठे गुणस्थान के आगे सभी साधु के ही हैं। आगे अनिवार्यरूप से सभी साधु ही होते हैं। साधु के सिवाय आगे के किसी भी गुणस्थान पर कोई अन्य टिक ही नहीं सकता है । अतः साधुता के लिए प्रवेश द्वार समान छट्ठा गुणस्थान है । अरे, यहाँ तक कह सकते हैं कि मोक्ष के लिए प्रवेश द्वार समान छट्ठा गुणस्थान है । मोक्ष में प्रयाण की शुभ शुरुआत साधु के छठे गुणस्थान से ही होती है। "चारित्र विण नहीं मुक्ति रे"
यह पंक्ति अत्यंत सार्थक सहेतुक पंक्ति है । अर्थ है— चारित्र के बिना मुक्ति की प्राप्ति संभव ही नहीं है । आज दिन तक भूतकाल के अनन्त काल में अनन्त आत्माएँ मोक्ष
साधना का साधक - आदर्श साधुजीवन
६९१