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________________ जानकारी प्राप्त करके वैसा बनने के लिए.. सतत पुरुषार्थ करना ही चाहिए । इस आदर्श को दृष्टि समक्ष रखकर वैसा बनने के लिए सतत उद्यमशील रहना चाहिए। ___ आगे के छठे गुणस्थान पर चढ़ने के लिए पहले पूर्व के गुणस्थानों की परिपक्वता आनी ही चाहिए। तो ही आगे बढना सार्थक है । अब पहले मिथ्यात्व गुणस्थानक से पूर्व की तीव्र मिथ्यात्व के उदयवाली अचरमावर्त काल की अवस्था, फिर मन्दमिथ्यात्ववाली चरमावर्त कालीन अवस्था आदि आपने देखी होगी? पीछे पढकर आप समझ गए होंगे? कि कैसी स्थिति थी? उसके पश्चात ३ करणादि करके आत्मा ग्रन्थिभेद कर सम्यग् दर्शन पाकर जो आगे बढी और उसके बाद विरतिधर बनकर पाँचवे गुणस्थान पर पहुँची इत्यादि सभी प्रकारों में आप स्पष्ट समझ पाते होंगे कि... जीव का कितना विकास हुआ है? किस तरह विकास हो रहा है? किस तरह पाप कर्मों का प्रमाण घटता है और आत्मा का शुद्धिकरण कार्य हो रहा है। इस तरह पूर्वावस्था में और अब ५ वें गुणस्थानवी जीवों में कितना आसमान–जमीन का अन्तर स्पष्ट दिखाई दे रहा है? यह समझ सकते हैं। इससे स्पष्ट ख्याल आता है कि जीव का आध्यात्मिक विकास कितना हुआ है । आत्मा कितनी आगे बढी है ? और अभी कितना आगे बढना शेष है ? यह और ऐसा स्वरूप समझकर प्रत्येक आत्माएँ आध्यात्मिक विकास साधती हई आगे प्रगती करने का प्रबल पुरुषार्थ करें और परम्परा से मुक्ति धाम को प्राप्त करें यही अभ्यर्थना.. । ॥ शुभं भवतु ॥
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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