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________________ है । बाह्य-आभ्यन्तर दोनों प्रकार के हैं। श्रावक के अन्य २१ बाह्य गुण भी बताए हैं प्रकारान्तर से, तथा यहाँ १७ लक्षण भाव श्रावक के बताए हैं । बाह्य २१ गुण आने के पश्चात् भी १७ गुणों की आवश्यकता रहती है । नित्यकृत्य देवपूजा गुरूपास्ति स्वाध्यायो संयमस्तपः । दानं चेति गृहस्थानां षट्कर्माणि दिने दिने । १. देवाधिदेवपरमात्मा की पूजा–भक्ति करना, २. गुरुभगवंतों की सेवा सुश्रूषा करना, ३. आध्यात्मिक स्वाध्याय करना, ४. व्रत-विरति पूर्वक संयम साधना सामायिकादि करना ५. तपश्चर्या करना, तथा ६. दान देना आदि छः कर्तव्यों को प्रतिदिन श्रावक को करते रहना चाहिए । इसी तरह पर्वकृत्य जो दर्शाए हैं उनमें- १. अमारि प्रवर्तन, २. साधर्मिक भक्ति, ३. अट्ठम तप, ४. चैत्यपरिपाटी, तथा ५. परस्पर क्षमापनादि विशेष रूपसे करने चाहिए । वर्षकृत्य के अन्तर्गत ११ वार्षिक कर्तव्य भी विशेष रूप से करने योग्य बताए हैं- १. चतुर्विध संघ भक्ति, २. साधर्मिक वात्सल्य, ३. यात्रा, ४. चैत्यपरिपाटी, तथा ५. देवद्रव्य वृद्धि, ६. महापूजा, ७. रात्रि जागरण,८. श्रुतशास्त्र बहुमान, ९. उद्यापन महोत्सव, १०. तीर्थ-शासन प्रभावना, और ११. आलोचना-प्रायश्चित्त लेकर शुद्धि करनी । पापों को सर्वथा खपाने के लिए प्रायश्चित करके कर्मशुद्धि करनी । तथा पौषधादि विशेष रूप से करना चाहिए इत्यादि पर्व में विशेष रूप से करने योग्य कर्तव्य हैं। पाँचवे गुणस्थानवर्ती श्रावक- . प्रस्तुत सारा अधिकार व्रतादि का स्वरूपादि पाँचवे गुणस्थानवर्ती श्रावक का बताया . है। चौथे गुणस्थान पर आरूढ होनेवाला श्रावक मात्र श्रद्धालु होता है । उससे एक सोपान आगे बढ़नेवाला भावुक पाँचवे गणस्थानपर व्रत-विरति-पच्चक्खाणवाला, आचरण करनेवाला होता है । देश = अल्प स्वरूप से भी विरति उसमें आती है । अतः श्रावक का जीवन यहाँ पर धोतित किया है । इससे पाँचवे गुणस्थान का स्वरूप पूर्णरूप से ख्याल में आ जाना चाहिए। यह पढकर आप स्वयं ही समझ जाएँगे कि..मैं स्वयं पाँचवे गुणस्थान पर हूँ या नहीं? मुझे पाँचवा गुणस्थान स्पर्शा है कि नहीं? या यदि मैं देश विरति के पाँचवे गुणस्थान पर चढा हूँ तो कितने अंशों में गुणस्थान के अनुरूप बन पाया हूँ? और कितने अंशों में कमी है ? यदि वैसी अवस्था अभी भी पूर्ण रूप में न आई हो तो विशेष देश विरतिधर श्रावक जीवन ६८९
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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