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मन्हजिणाणं सज्झाय में श्रावक के ३६ कर्तव्य
१) जिनेश्वर प्रभु, गुरुदेवों की आज्ञा का स्वीकार करना । २) कुदेव - कुगुरु-कुधर्म रूप मिथ्यात्व का त्याग करना । ३) सुदेव - सुगुरु सुधर्मरूप सम्यक्त्व का स्वीकार करना । ४) सामायिक, ५) चतुर्विंशतिस्तव, ६) वांदणा, ७) प्रतिक्रमण, ८) कायोत्सर्ग, ९) पच्चक्खाण रूप षडावश्यक पालना, १०) पर्व तिथि के दिन पौषधादि लेना चाहिए । ११) दान देना, सुपात्र दान, अनुकंपा दान आदि दान प्रतिदिन देने चाहिए । १२) शील सदाचार-ब्रह्मचर्यादि का पालन करना । १३) तप- जो भी तपश्चर्यादि करने हों वह अवश्य करनी चाहिए । १४) भाव- • अनित्यादि १२ भावना, मैत्री आदि ४ भावनाओंका शुभ भावों का चिन्तन करना चाहिए । १५) स्वाध्याय— धर्मशास्त्रों, पुस्तक वांचन, सूत्रार्थादि का स्वाध्याय करना चाहिए । १६) महामन्त्र नमस्कारादि का जाप करना चाहिए । १७) परोपकार के शुभ कार्य करना । १८) आरंभ समारंभ से बचते हुए.. छः जीव निकाय की जयणा पालनी चाहिए । १९) जिन पूजा, अष्टप्रकारी पूजा - दर्शनादि करना । २०) जिनेश्वर प्रभु की स्तुति - स्तवना करनी । २१) गुरुसुश्रूषा - भक्ति - सेवा वैयावच्च - तथा आहारदान आदि करना । २२) अपने स्वधर्मी साधर्मिक भाइयों की भक्ति - वात्सल्य, बहुमान करना चाहिए। उनके दुःखों का भी निवारण करना चाहिए । २३) व्यवहार शुद्धि - नैतिकता, सदाचार परायणता, आदि गुणों का आचरण करना । २४) रथयात्रावरघोड़ा आदि द्वारा शासन प्रभावना करनी । २५) तीर्थयात्रा - छरि पालित पैदल संघ में गुरु भगवंतों के साथ या अन्य रीती से भी तीर्थयात्रा करनी चाहिए । २६) उपशम भाव- धर्म के प्राणरूप समताभाव का पालन करना, राग- द्वेष - कषायों से बचकर रहना । २७) विवेक — हेय ज्ञेय और उपादेय रूप विवेक से व्यवहार करना । २८) संवर- कर्मों के आगमन को रोकते हुए संवर धर्म का पालन करना । २९) भाषा समिति-— सत्यप्रिय मधुर भाषा बोलनी, निरवद्य - हिंसात्मक कटु-कलहकारी - अपशब्दोंवाली भाषा न बोलनी । ३०) षट्जीवकरुणा — पृथ्वीकायादि छः जीवनिकायों की करुणा दया से रक्षा करनी - जीवदया पालनी । ३१) धर्मीजनसंसर्ग - धर्मी धर्मात्मा को कल्याणमित्र के रूप में रखकर उनके साथ धर्मचर्चा करनी चाहिए। ३२) इन्द्रिय नियंत्रण — पाँचों इन्द्रियों पर संयम पूर्वक नियंत्रण रखना चाहिए । जितेन्द्रिय बनना । ३३) चरणपरिणाममुझे कब संयम मिले ? मैं कब दीक्षा ग्रहण करके चारित्री बनूँ ? ऐसी शुभ पवित्र भावना भानी चाहिए । ३४) संघ बहुमान — साधु-साध्वी - श्रावक-श्राविकारूप चतुर्विध संघ की मुक्ति-सन्मान करना चाहिए । ३५) ग्रन्थ लेखन - धर्मग्रंथ शास्त्र पुस्तकादि लिखने
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आध्यात्मिक विकास यात्रा