SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 275
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सामायिकादि ४ शिक्षाव्रत के पालन- अपालन से गुण-दोष - I शास्त्रों में वर्णन आता है कि.. लाख खांडी सोने का नित्य दान करनेवाले की अपेक्षा सामायिक करनेवाला श्रेष्ठ गिना जाता है । २ घडी की सामायिक करने से श्रावक .. ९२ करोड, ५९ लाख, २५ हजार ९२५ पल्योपम का देवायुष्य बांधता है । सामायिक से समता बढती है | और पौषध करनेवाला जीव २७७७७७७७७७७ ँ पल्योपम का आयुष्य देवगति का बांधता है । (२७ अब्ज, ७७ करोड ७७ लाख, ७७ हजार, ७७७ पल्योपम वर्ष) सोने के प्रासाद कराने से भी ज्यादा विशेष लाभ तप पूर्वक किये गए पौषध से होता है । देशावकाशिक से निरर्थक अविरति से बचा जाता है । विरति में रहने से पाप के आश्रव से बचा जाता है। अतिथि संविभाग व्रत से स्वर्ग की प्राप्ति, ऋद्धि-सिद्धि-समृद्धि तथा अन्त में तीर्थंकर नामं कर्म भी उपार्जन होता है । यह दान की प्राधान्यतावाला व्रत है । सुपात्रदान भविष्य में मोक्षफल की प्राप्ति भी कराता है 1 इस प्रकार सभी व्रतों के पालन से अनेक प्रकार के गुणों की प्राप्ति, शुभ कर्मों से भवान्तर में भी शुभ की प्राप्ति होती है । न पालने से दोषों का सेवन होता है । और नरकादि दुर्गति की प्राप्ति होती है। कई भव बिगडते हैं। संसार बढता है । भावी भवों की परंपरा बढती है । संसार चलता ही रहेगा। ऐसे संसार चक्र में घूमते रहने से कभी भी अन्त नहीं आता है । मुक्ति दुर्लभ हो जाती है । अतः व्रतादि पालना लाभप्रद है | श्रावकं जीवन की दिनचर्या जैन कुल में जन्म लेकर हम मात्र जन्म से जैन बने । बाप-दादाओं के जैन धर्म की सुवास के कारण हम भी धर्मी के नाम से पहचाने गए । व्यवहार नय से धर्मक्रिया की करणी करते रहे, इतने मात्र से सच्चे जैन नहीं बने। अब कर्म-धर्म से सच्चे जैन बनना अनिवार्य है । अब हमें धर्म समझकर जैनत्व को शोभास्पद हो ऐसे ही कर्म करना शेष कर्म न करना इस तरह समझकर धर्माचरण करते हुए सच्चे जैन श्रावक बनना चाहिए। अब मात्र गृहस्थी घरबारी ही नहीं अब श्रावक बनने में ही विशेष शोभा है। श्रावक में भी पूर्ण श्रद्धायुक्त - व्रतधारी श्रावक बनना चाहिए। ऐसे श्रावक के जीवन में प्रतिदिन की दिनचर्या कैसी होनी चाहिए ? जैसे पुणीया श्रावक जैसे महान उत्तम कक्षा के श्रावक ने अपनी दिनचर्या जीवनी बनाई थी वैसी श्रावक जीवन की दिनचर्या की विचारणा यहाँ प्रस्तुत है ६८२ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy