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________________ 1 ब्रह्मचर्य व्रत पालनेवाले अब्रह्म पाप का सेवन करने के विषय में शास्त्रकार महर्षि फरमाते हैं कि परस्त्रीगमन में भी वध, बंधनादि की दशा होती है। नरक गति के तीव्र दुःखों को अनेक बार सहन करना पडता है । दुराचारी - व्यभिचारियों को जन्मान्तर में नपुंसक बनना पडता है । उन्हें भगंदरादि भयंकर व्याधियाँ होती है । दुराचारिणी स्त्रियाँ जन्मान्तर में विषकन्यादि बनती हैं। जिसके स्पर्श मात्र से विष के प्रभाव से लोग मरते हैं । शासनपति श्री महावीर प्रभु गौतमगणधर महाराज को कहते हैं कि हे गौतम! देवद्रव्य का भक्षण करनेवाले, परस्त्री सेवन करनेवाले जीव को सात बार सातवीं नरक में उत्पन्न होना पडता हैं । (सातवीं नरक में उत्कृष्ट आयुष्य ३३ सागरोपम का है । १ सागरोपम बरोबर असंख्य वर्ष का काल । ऐसे ३३ सागरोपम वर्षों के लम्बे काल तक और उसमें सातबार सातवीं नरक का आयुष्य मिलना-भुगतना वह भी एक मात्र दुःख में। ... अतः सोचिए कितने वर्षों के लम्बे काल तक कितने भव तक जीव को परस्त्री गमन का पाप भुगतना पडेगा ।) = मैथुन सेवन करने से अपने जैसे ही मनुष्य बनने की योग्यतावाले उत्कृष्ट से नौ लाख असंज्ञी मनुष्य जीवों का घात हिंसा होती है। उसके सिवाय दो इन्द्रियादि असंख्य जीवों असंख्य संमुर्छिम जीवों का नाश होता है। अतः सोचिए, एक बार के मैथुन सेवन से असंख्य जीवों का नाश होता है। पच्चक्खाण आवश्यक निर्युक्ति की चूर्णि के ४ थे व्रत के अधिकार में बताया है कि ब्रह्मचारी उभयलोक में विशिष्ट सुखों की प्राप्ति करतां है । तथा अल्पकाल में मुक्तिगामी बनता है । परिग्रह के दोष तथा अपरिग्रह के लाभ 1 श्री उत्तराध्ययन सूत्र आगम शास्त्र में कहते हैं कि लोभी व्यक्ति को हिमालय पर्वत के प्रमाण जितना सोना चांदी आदि मिल जाय तो भी संतोष - शान्ति नहीं होती है । क्योंकि इच्छाएँ आकाश जितनी अनन्त है । अतः इच्छाओं को मर्यादित करने से पाँचवा परिग्रह परिमाण व्रत का पालन हो सकता है । सर्व सुखों का मूल संतोष है। संतोषी मनुष्य उभय लोक में सुख-शान्ति प्राप्त करता है। जबकि असंतोषी जीव दरिद्रता, दुर्भगता, दासपना आदि भयंकर दुःख बारबार पाता है। महाआरंभी - महापरिग्रही जीव बारबार नरक गति में जाते हैं। वर्तमान काल में शेयर का व्यापार महारंभ महापरिग्रह का ही निमित्त कारण है। फैक्ट्री, कारखाने आदि महारंभ महापरिग्रह रूप है। जो जीव को नरक गति जाते हैं । आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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