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________________ उपरोक्त सम्यक्त्व मूल बारह व्रत के १२४ अतिचारों को जान लेना और उन अतिचारों (दोषों से बचने का पूरा उपयोग रखना यही धर्म है । इन्ही १२४ अतिचारों को संकलित करके श्रावक के योग्य वंदित्तु सूत्र बनाया है। जिसका रोज के प्रतिक्रमण में उपयोग होता है । और इन्हीं १२४ अतिचारों के वंदित्तु सूत्र के आधार पर श्रावक के बडे अतिचार बनाए गए हैं। जिसको पक्खी-चौमासी-संवत्सरी के दिन प्रतिक्रमण में बोले जाते हैं और क्षमायाचना की जाती है । माफी मांगी जाती है । व्रतधारी आराधकों को इन अतिचारों से बचने का पूरा ध्यान रखना चाहिए । अतिचारों (दोषों) के भय से व्रत न लेना यह सबसे बडा अतिचार है। सबसे बडी भारी भूल है। अतः व्रत लेकर अपना जीवन सफल-धन्य बनाना ही लाभकारी-हितकारी है। भवभीरू आत्माओं को चाहिए कि अपने व्रत रूपी रत्न को इस अतिचार रूपी जंग लगी डब्बी में न रखें। व्रत के खपी आराधक भाववाले शुद्ध साधक बनें, सच्चे मोक्षमार्ग के खपी बनें। - धर्मकरणी जिनशासन की प्रभावना तथा रक्षा एवं शासनोन्नति के लिए गीतार्थों की प्रेरणानुसार शुभ कार्य शुभ हेतु से, शुभ भाव से करता रहे और अनेक भव्यात्माओं को ऊँचे व्रतधारी श्रावक बनाओ। किसी भी प्रकार की भूलें हो गई हो तो उसे लिखकर गुरुमहाराज के पास उसका प्रायश्चित लेकर वह प्रायश्चित्त पूरा करके पुनः पवित्र-शुद्ध बनना। श्रावक के.२१ गुण १ अक्षुद्रवृत्ति उदार दिलवाला हो, २ स्वरूपवान, ३ प्रकृतिसौम्य-शांतस्वभावी, ४ लोकप्रिय, ५ अक्रूर-क्रूर-हिंसक वृत्तिवाला न हो, ६ पाप भीरू, ७ अशठ-ठग वृत्तिवाला न हो, ८ लज्जाशील,९ दयालु, १० माध्यस्थ-भावनावाला हो,११ सदाक्षिण्य, १२ गुणानुरागी, १३ सत्यवादि, १४ सुपक्षयुक्त-सुशील परिवार युक्त, १५ दीर्घदर्शी, १६ विशेषज्ञ निपुण, १७ वृद्धानुगामी-बडे वृद्धों के मार्ग पर चलनेवाला, १८ विनीत-नम्र, १९ कृतज्ञ-उपकार स्मृति में रखनेवाला हो, २० परोपकारी परहितकारी, २१ लब्धलक्ष्य-सर्व धर्म कार्य में सुशिक्षित हो ध्येय सिद्ध्यर्थ साधना करे । इस प्रकार के उपरोक्त २१ गुण श्रावक के हैं। प्रत्येक श्रावक सर्वगुणसंपन्न बनने का प्रयल करें। साधक के लिए गुणों की पूरी आवश्यकता है । उपरोक्त २१ गुणयुक्त श्रावक बने तो वह स्व और धर्म उभय की प्रशंसा कराता है । अच्छे गुणवान बनने के लिए इस गुणों को जीवन में विकसाएँ। देश विरतिधर नायक जीवन ६७७
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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