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धारनी और यह व्रत उच्चरना । तथा उपरोक्त विधि पूर्वक धारी हुई संख्यानुसार यह व्रत पालना । संभव है कि शायद वर्ष भर में साधु मुनिराज का योग ही न मिले तो साधर्मिक (स्वधर्मी) बंधु को भोजनादि कराके इस व्रत का पालन करें ।
इस व्रत के ५ अतिचार
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सच्चित्ते निक्खिवणे, पिहिणे ववएस मच्छरे चेव कालाइक्कमदाणे, चउत्थे सिक्खावए निंदे ॥
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सचित्त निक्षेपण - बहोराने योग्य पदार्थों को सचित्त कच्चे पानी आदि पर रख . देना, अचित्त को सचित्त के साथ मिश्रित करनी और न बहोरानी यह प्रथम अतिचार
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सचित्त पिधान- बहोराने योग्य अचित्त किए हुए फलादि पर ढाँकने आदि हेतु से सचित्त को उपर ढँक देना, रख देना, आदि अतिचार है ।
पर व्यपदेश - दान के भाव न होने के कारण अपनी वस्तु को भी पराई कहकर न बहराना भी अतिचार है ।
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मात्सर्यबुद्धिपूर्वक दान – मुनिजन को खपे ऐसी योग्य वस्तु बहोराने में क्रोध-तथा मात्सर्यादि रखे तो वह भी अतिचार है ।
कालातिक्रम - गोचरी बहोराने का काल बीत जाने पर अब अकाले गोचरी बहोराने का आग्रह करना यह भी दोष है ।
इन अतिचारों को जानकर इनका सेवन न करना और शुद्ध भाव पूर्वक सुपात्रदान देने के भावुक बनना हितावह है।
जयणा - इस व्रत में जयणा नहीं रखनी है। क्यूंकि वर्ष भर के ३६५ दिन में किसी भी दिन कर सकते हैं । और १०-२० बार करने के पच्चक्खाण हो तो बिमारी आदि के कारण कभी भी आगे पीछे कर सकते हैं। अतः जयणा की आवश्यकता नहीं है । फिर भी लम्बी बीमारी में जयणा या लम्बे अरसे के लिए देशान्तर गए तो जयणा । लेकिन व्रती अपनी धारणा को आगे पूरी करने की भावना रखे ।
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ध्येय - अनादि-अनन्त काल से जीव के लेने के ही संस्कार बने हुए हैं। अब इस व्रत के पालने से देने के संस्कार बनें इस ध्येय से यह व्रत उपयोगी होगा । शालिभद्रादि के जैसा उत्तम पुण्यानुबंधी पुण्य उपार्जन करने का ध्येय रखें। नयसार ने मुनिजन को
देश विरतिधर श्रावक जीवन
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