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तथा सर्व सावद्य (हिंसादि) पाप प्रवृत्ति (व्यापार) का त्याग करके, ८, १४, १५, ३०, आदि चतुष्पव में (चार पर्वो) आदि में दिन-रात की विरति धारण करने को पौषधव्रत कहते हैं ।
पौषध
४ प्रहर (दिनके)
४ प्रहर (रात्रिके
८ प्रहर (दिनरात के) (१) केवल दिन के ४ प्रहर का पौषध लिया जाय वह दिन का पौषध, (२) केवल रात्रि के ४ प्रहर का पौषध लिया जाय वह रात्रि का पौषध, (३) और जो अहोरात्रि = अहो = दिन, रात्रि = रात, अर्थात् दिन-रात का मिलाकर - ४ + ४ = ८ प्रहर का पौषध लिया उसे अहोरात्रि का पौषध कहते हैं । जैसे सामायिक २ घडी की होती है । वैसे
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ही सामायिक ४ प्रहर अर्थात् १२ घंटे की हो – अर्थात् १२ घंटे दिन के या रात के (या २४ घंटे दिनरात के) सामायिक में ही रहना, सावद्य पाप व्यापार का त्याग करके सर्वथा विरति में ही रहना । यह पौषध व्रत है। ऐसा सावद्य पाप प्रवृत्ति के त्याग रूप विरति धर्म की पोप की आराधना अन्य से बडी-ऊँची आराधना है। अतः इसमें आहार - शरीर सत्कार सुश्रुषा - शोभा स्नानादि नहीं करना है । व्यापार धंधा नहीं करना, मैथुन सेवन आदि का इसमें त्याग है । और सावद्य पाप प्रवृत्ति का भी त्याग करना है। ऐसा त्याग करके महीने की मुख्य ८, १४, १५, ३० इन चतुष्पव के दिन या और भी २, ५, ११ आदि तिथियों में श्रावक अवश्य पौषध व्रत ग्रहण करें । या स्वशक्ति अनुसार वर्ष में २५-५० आदि पौषध करने का नियम करें ।
सूचना - पौषध तप के साथ ही होता है । अतः पौषधोपवास (पोसहोववास) ऐसा नाम आगम में रखा गया है। अतः उपवास सहित करें तो सर्व श्रेष्ठ है । और शक्ति न हो तो आयंबिल, नीवि, एकासणे के साथ पौषध करें परन्तु इससे नीचे के तप या सर्वथा बिना तप के पौषध नहीं होता है ।
पौषध व्रत के नियम
प्रत्येक महिने की८, १४, १५, ३० आदि पर्वतिथि को पौषध करना ।
प्रति महीने कम से कम १ या २ पौषध करना ।
वर्ष के (२५-५०)...... इतने पौषध करना ।
पर्युषण में ६४ प्रहर (८ दिन के) पौषध करना ।
आध्यात्मिक विकास यात्रा
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