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आठवाँ - अनर्थदंड विरमण व्रत-(तीसरा गुणवत)
शरीराद्यर्थ दण्डस्य, प्रतिपक्ष तया स्थितः ।
योऽनर्थ दण्डस्तत्त्यागस्तृतीयं तु गुणवतम्।। -शरीरादि के हेतु से जो प्रवृत्ति की उसके दण्ड के रूप में प्रतिपक्षी स्थित है । वह जो अनर्थ अर्थात् निरर्थक दण्ड है उसका त्याग करने रूप यह तीसरा गुणव्रत अनर्थदंड विरमण व्रत है । शरीरादि में आदि पद से यहाँ शरीर क्षेत्र (जगह-जमीन) घर, दुकान, तथा धन-धान्य, कुटुम्ब-परिवार, नोकर-चाकर, पशु-पक्षी आदि जीवन निर्वाहोपयोगी साधनों से बिना कारण के निषयोजन जो पाप किया जाता है वह अनर्थकारी निरर्थक पाप, है। उसके दंड के रूप में होने से अनर्थदंड कहा जाता है । और ऐसी अनर्थकारी निरर्थक पाप की प्रवृत्ति का त्याग करने रूप जो पच्चक्खाण लिया जाय वह अनर्थदंड विरमण व्रत कहलाता है। अर्थात् निष्प्रयोजन निरर्थक पापों का त्याग ! अर्थ का मतलब है प्रयोजन - सकारण। ऐसे अर्थ में लगा पाप अर्थ दंड कहलाएगा। यह अर्थ ४ प्रकार से है(१) स्वजन (२) शरीर (३) धर्म और (४) व्यवहारादिक का आश्रव ये ४ अर्थ दंड है। मनुष्य जिस कारण से, जिस हेतु से जो ज्यादा प्रवृत्ति करता है वे अपने सगे संबंधि, अपने शरीर की प्रवृत्ति, धर्म और लोक व्यवहार की प्रवृत्ति का मनुष्य के जीवन में ज्यादा उपयोग है। यह प्रवृत्ति सप्रयोजन सहेतुक सार्थक है । लेकिन इसमें विपरीत प्रवृत्ति निरर्थक निष्प्रयोजन है । उसे अनर्थकारी, अनर्थदंड की प्रवृत्ति कहते हैं । यह पाप प्रवृत्ति हुई । अतः ज्ञानिओं ने इसका त्याग करने के लिए व्रत क्रम में आठवाँ और गुणव्रतों में तीसरा अनर्थदंड विरमण व्रत नामक व्रत बताया है।
___ अनर्थदण्ड के मूल ४ प्रकार और उपभेद ११ अपध्यान पापोपदेश हिंस्रप्रदान प्रमादाचरण
अशुभ ध्यान आर्तध्यान ४ रौद्रध्यान ४ ___ आर्त का अर्थ है दुःख पीडा, और ध्यान का अर्थ यहाँ पर विचार है । दुःख पीडा से
छूटने का सतत विचार करना अर्थात् सीधे शब्दों में चिंता करना यह आर्तध्यान कहलाता है। इसके ४ भेद हैं । १ अनिष्ट वियोग- मुझे जो नहीं चाहिए, जो मुझे अप्रिय है ऐसे मिले हुए पदार्थ छूट जाएं, और भावि में न मिले ऐसी चिंता यह अनिष्ट वियोग है। साथ ही इष्ट का वियोग भी न हो जाय यह चिंता है । २ इष्ट संयोग- मुझे जो प्रिय-पसंद है
देश विरतिधर श्रावक जीवन
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