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________________ ऐसे पदार्थ या भोगों का संबंध सतत बना ही रहे हमेंशा मिलता ही रहे । जो है वह न छूटे ऐसी सतत इच्छा यह भी चिंता–आर्तध्यान है । ३ रोगादि वियोग-रोग टलने की सतत चिंता में हाय..... हाय करना। ४ निदानाध्यवसाय (नियाणा) – दैवी भोग सामग्री, चक्रवर्ती की ऋद्धि-सिद्धि आदि तथा पति राग या द्वेष में किसी की प्राप्ति की प्रबल इच्छा से नियाणा बाँधना यह भी आर्तध्यान है । रौद्रध्यान-५ हिंसानुबंधी-जिसके उपर द्वेष हो या अपनी वस्तु ली हो इत्यादि कारणवश किसी को मारने की क्रूर हिंसक वृत्ति की विचारधारा । ६ मृषानुबंधी-किसी पर कलंक लगाना, आरोप लगाना, चुगली करना। गाली देना आदि हिंसा हो ऐसी उत्तेजक भाषा में झूठ बोलना आदि । ७ स्तेयानुबंधीचोरी करने की इच्छा रखनी । चोरी में किसी को मारना पडे तो मारने की इच्छा रखनी यह । ८ विषय संरक्षणानुबंधी (परिग्रहानुबंधी) - धन के रक्षण के लिए किसी पर विश्वास न आने से पर के प्रति “वे मर जाय तो,अच्छा" ऐसी दुष्ट खराब विचारधारा यह। अशुभ या अपध्यान के आर्तरौद्रध्यान के ये ८ भेद हैं। निरर्थक अनर्थकारी विचारों से जो पापकर्म का बंध होता है वह अनर्थ दंड है। - ९ पापोपदेश- बैल–घोडे की खसी करो, जमीन खोदो, शत्रुओं को मारो, युद्ध करो, मशीनें चलाओ, शस्त्रादि बनाओ, नकली रुपए छापो, इत्यादि कार्यों में बिना प्रयोजन के भी किसी को प्रेरणा करें, सलाह दें आदि पापोपदेश हैं। . १० हिंस्रप्रदान-हिंसा के कारणभूत या इसमें अंग भूत ऐसे शस्त्र, अग्नि, घंटी, मशीन, मंत्र, मूल जडी बूटी दवाई, इत्यादि पापारंभ हिंसा कारक वस्तु रखना, लेना, देना, आदि हिंस्त्रप्रदान। .. ___ ११ प्रमादाचरण- स्नान, मर्दन, तैल मालीश, शोभा सुश्रुषा, विलेपन करना, देह शोभा, वैषयिक भोगों में मस्त रहे इत्यादि प्रमादाचरण का ही सेवन करते रहना, और आत्म कल्याणार्थ कुछ भी न करते हुए पर प्रपंच में निंदा कुथली में ही बैठे रहना खेल कूद में ही मस्त रहना, या समय पसार के लिए पत्ते खेलना आदि करना यह भी प्रमादाचरण है। ४ विकथा का त्याग करना- १ स्त्री कथा, २ भक्त-भोजन की चर्चा, ३ देश कथा,४ राज कथा- में राज कारण की चर्चा इत्यादि ये चारों निरर्थक पाप कर्म बंधानेवाले होने से अनर्थकारी हैं। पशु-पक्षी लडाना, नाटक-सिनेमा-सर्कस आदि में भटकना यह सब अनर्थदंड हैं। इनसे बचना यह अनर्थदंड विरमण नामक ८ वां और तीसरा गुणव्रत है। ६६४ . . आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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