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३१ वापरने के वस्त्रादि की मर्यादा रखना। ३२ पर्व तिथि आदि को ब्रह्मचर्य पालना । स्व स्त्री में मर्यादा रखना। ३३ भोजन में वापरने की वस्तु की मर्यादा रखें । परिमित संख्या एवं प्रमाण में वापरना। इस व्रत के ५ अतिचार
सच्चित्ते पडिबद्धे अप्पोलि-दुप्पोलिअंच आहारे। . तुच्छोसहि भक्खणया, पडिक्कमे देवसिअंसव्वं ॥
तुच्छोसहि भक्खणया, पाडक्कम द १ सचित्त (सजीव) वस्तु खानी, २ सचित्त के साथ मिश्रित या लगी हुई सचित्त प्रतिबद्ध आहार लेना, ३ अपक्व (अर्द्ध कच्चे) आहार खाना, ४ खराब तरीके से पकाई हुई (मिश्रित) वस्तु खानी,५ कम खाया जाय और ज्यादा फेंका जाय ऐसे तुच्छ बेर ईख दाडिम आदि तुच्छौषधि का त्याग करना।
जयणा-१४ नियम धारने में सचित्त द्रव्यादि की संख्या प्रमाण आदि धारने में यदि विस्मृति आदि अनुपयोग दशा में कोई भूल हो जाय तो उसमें जयणा । जिस नियम में जो जयणा जितनी रखनी हो वह पहले से रखकर ही पच्चक्खाण लेवें। अन्जान में सचित्तादि जीभ पर रख कर चख लिया उसकी जयणा । पर्व तिथि का ख्याल न रहा और नियम भूल गए तो दूसरे दिन कर लेना। अन्जान में भूल से वर्ण्य पदार्थ खाने में आया
और जीभ पर आते ही ख्याल आ जाने से यूंक देना। आगे सब नहीं खाना । और गुरु महाराज से प्रायश्चित लें लेना। इत्यादि जयणा रखते हुए आराधक भाव जरूर बनाए रखना चाहिए।
ध्येय-अनन्त संसार की अनन्त भव परंपरा अनन्त जन्मों में जीव अनन्त पदार्थों का भोग और उपभोग कर लिया है । अब कोई पदार्थ जीवके लिए भोगना शेष नहीं बचा है। अब जो भी पदार्थ भोग रहे हैं वह झूठ खाने, या वमन करने के बाद पुनः खाने के जैसी बात है । और भोग उपभोग यह तो अनन्त तृष्णा की भयंकर आग है । इसमें जितना ही घी डालो सब स्वाहा होता जाएगा। तृष्णा की तृप्ति बडी कठिन है 'भोगाः न भुक्ता वयमेव भुंक्ता' भोग नहीं भोगे गए हमारा ही भोग लग गया। हम ही भोगे गए अतः भोग का त्याग ही श्रेष्ठ है । एक दो सामान्य पदार्थ या भोग आत्मा की गती न बिगाड दे महापाप कराके नरक में न फेंक दें। अतः भोगोपभोग परिमाण व्रत इस ध्येय से आवश्यक है।
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आध्यात्मिक विकास यात्रा