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________________ बनाते हैं । ये अचार १-२ वर्ष तक भी रखते हैं। अतः बनाते समय नमक के पानी में / करके धूप में सुखाकर कडक किए हुए हो । किसी मुरब्बे आदि में तीन तार की शक्कर की चासनी हो, उन अचारों में किसी भी प्रकार के धान्य कठोल आदि का मिश्रण न हो तो ही वे वर्ष भर रख सकते हैं। वरना उसमें जीवों की उत्पत्ति हो जाती है । अनन्तकाय की असंख्य (फुलण) छा जाती है । फिर वे अभक्ष्य कहे जाते हैं । अतः जीभ के स्वाद के पीछे अनन्त जीवों की हिंसा का पाप सिर पर लेकर दुर्गति में क्यों जाना ? १७ द्विदल (विदल) अभक्ष्य - द्वि = दो, दल भाग । कठोल में जिनके दो भाग होते हैं वे द्विदल कहलाते हैं। जैसे मूंग, उडीद, मटर, तूवर, चने, आदि के दो भाग (दल) होकर वे दाल के रूप में बनते हैं अतः उन्हें या कठोल के बने हुए या कंठोल मिश्रित पदार्थों को कच्चे दूध, दही, छाछ, लस्सी के साथ यदि खाया जाय तो उनके मिश्रित होते ही उनमें असंख्य दोइन्द्रिय त्रस जीवों की उत्पत्ति होती है । फिर खाने से हिंसा होगी। अतः द्विदल अभक्ष्य हैं, अतः भोजन में साथ ही कच्चे दूध, दही, छाछ, लस्सी आदि खाना वर्ज्य है । जैसे खिचडी, दाल, भजिए, कठोल की सब्जी आदि के साथ कच्चा दूध, दही, छाछ, लस्सी खाना वर्ज्य है । अभक्ष्य है । लेकिन दहीं - छाछ लस्सी भी पूरी तरह गरम किया हुआ हो, तो खाने में दोष नहीं है। दहीवडा में दही और बडे दोनों गरम करते हैं तो ही खा सकते हैं । यह समझकर द्विदल के अभक्ष्य का भी त्याग करें । = १७ बैंगन (रींगणा) अभक्ष्य - बैंगन - सर्व जाति के बैंगन (रींगणा) अभक्ष्य हैं । एक तो बैंगन में बहु संख्या में बीज हैं। तथा ऊपर की टोपी में सूक्ष्म त्रस जीवों की संख्या भी काफी ज्यादा है । तथा यह अतिविकारी, तामसी होने से भी वर्ज्य हैं। न खाया जाय । आरोग्य की दृष्टि से भी हानिकारक है । I १९ अन्जाने फलं न खाएं- जंगल में या अन्यत्र कई ऐसे फल मिल जाएं जो अन्जाने-अज्ञात फल हो, जिनके नाम, जाति तथा-गुण दोष आदि प्रसिद्ध न हो, जो लोक व्यवहार में खाने में प्रचलित - प्रसिद्ध न हो ऐसे किंपाक आदि के फल वर्ज्य हैं। किंपाक जंगली फल है । खाते ही मृत्यु होती है। तथा जहरीले - विषैले फल भी वर्ज्य हैं। अतः इसका त्याग करें । 1 २० तुच्छफल अभक्ष्य - जो असार है, तृप्तिकारक नहीं है, कई फल खाने के बावजूद' भी न पेट भरे, न शक्ति आए। और खाना थोडा सा नाम मात्र, तथा फेंकना दुगुना हो ऐसे तुच्छ फलों को अभक्ष्य कहा गया है । उदाहरणार्थ — चनी बेर, पीलु, पीच, लघुबदर, आध्यात्मिक विकास यात्रा ६५२
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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