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स्वीकारना हितावह है । १८ पापस्थानों की प्रवृत्ति सीमित करके निष्पाप जीवन जीने का साध्य बनावें । आत्म सन्मुख बनने का लक्ष रखें।
सातवाँ भोगोपभोगपरिमाण व्रत- (दूसरा गुणवत)
भोगोपभोगयोः संख्या-विधानं यत् स्वशक्तितः ।
भोगोपभोगनामाख्यं, तद् द्वितीयं गुणव्रतम्॥ भोगयोग्य पदार्थ और उपभोगयोग्य पदार्थों की संख्या का अपनी शक्ति के अनुसार प्रमाण निश्चित करना अर्थात् मर्यादा बाँधना यह सातवाँ भोगोपभोग परिमाण व्रत है। यह दूसरा गुणव्रत है । भोग का अर्थ है जिस वस्तु का एक ही बार भोग किया जाय (वापरी जाय)। जैसे भोजन, फूल, तंबोल, शरीर पर विलेपन, स्नान-पान योग्य पदार्थों का एक ही बार उपयोग किया जाता है फिर वे नष्ट हो जाते हैं । यह भोग कहलाता है । और जिसका बार-बार अनेक बार उपयोग (भोग) किया जाता है उसे उपभोग कहा जाता है । जैसे वस्त्र, सोना-चांदी-हीरे-मोती के गहने, बर्तनादि,घर-मकान-बंगला, गाय, भैंस, बैलादि पशु तथा काम वासना संतोषने के लिए स्त्री का भी बार-बार उपभोग किया जाता है । अतः यह उपभोग कहलाता है । इस भोग और उपभोग योग्य पदार्थों का भोगवटा मैंने इस संसार में एकबार नहीं अनेक बार किया है । फिर भी तृप्ति संतोष नहीं हुआ है । और इन्ही के पीछे अनेक क्लेश-कषाय संघर्ष हुए हैं। अनेक पापकर्म करके जीव नरक आदि दुर्गतियों में गया है । अब समझकर इन भोग–उपभोग योग्य पदार्थों का त्याग करें, इनकी मर्यादा, बांधे, परिमाण = प्रमाण निश्चित कर सकें इसलिए भोगोपभोग परिमाण रूप यह सातवाँ व्रत बताया है । आत्मा के लिए यह गुणव्रत स्वरूप है । इसलिए इसे दूसरा गुणव्रत कहा है।
. मज्जंमि अमंसंमि अपुप्फे अफले अगंधमल्ले ।
___उवभोगे-परिभोगे, बीअम्मि गुणव्वए निदे॥ मद्य, मांस, तथा २२ अभक्ष्य, ३२ अनन्तकाय पुष्प, फलादि पदार्थों के विषय में रखी हुई उपभोग(भोग) तथा परिभोग(उपभोग) रूप भोगोपभोग परिमाणात्मक द्वितीय गुणव्रत में लगे दोषों की मैं निंदा करता हूँ। वंदित्तु की इस २० वी गाथा में भोग के अर्थ में उपभोग शब्द का प्रयोग किया है । अर्थात् पुष्प–फलादि जो एक बार भोगाजाय वे। और उपभोग के सामान्य अर्थ में यहाँ परिभोग शब्द का प्रयोग किया है।
देश विरतिघर श्रावक जीवन
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