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________________ " sw ३ घूमने-फिरने-देखने हेतु विदेशों में नहीं जाना। ४ व्यापारादि हेतु अमुक देश में जाने की छूट के सिवाय अन्य सभी देशों में न जाने के पच्चक्खाण। भारत को छोडकर बाहर विदेशों में न जाना। ' ६ भारत को छोडकर विदेशों में जाकर वसवाट (बसना) नहीं करना। ७ ऊर्ध्व-उपर की दिशा में नहीं जाना। ८ अधो-नीचे की दिशा में नहीं जाना। ९ भारत में कहाँ तक जाना? यह नियम करें। १० चातुर्मास में शत्रुजय आदि तीर्थों की यात्रा करने न जाना। ११ पुत्र-पुत्री या स्वजन-संबंधी के बुलाने पर, कार्य क्श मिलने आदि के हेतु से उसी देश में जाना परन्तु उस देश के सिवाय अन्य सभी देशों में न जाना यह प्रतिज्ञा करना। १२ समुद्री मुसाफरी न करना। १३ ध्रुव प्रदेशों में सर्वथा न जाने के आजीवन पच्चक्खाण करना। १४ विदेशों से शादी संबंध न जोडना। . जयणा-शोध-संशोधन या इतिहास के लिए गुरु आज्ञा लेकर जाने की जयणा । स्वदेशमें चातुर्मासातिरिक्त काल में तीर्थयात्रा, या गुरुमहाराज के वंदनार्थ जाने की जयणा । देश-विदेश के पत्र, तार; पोष्ट अखबार आदि मँगाने, भेजने, पढने आदि की जयणा । अनिवार्य संयोगों में ओपरेशन के हेतु से जाना पडे तो जयणा । विदेश में बसे हुए पुत्र-पुत्री की मृत्यु आदि प्रसंग पर जाने की जयणा। दिक्गमन त्याग का ध्येय संसार सैकडों पापों से भरा हुआ है। साधक स्वलीन अवस्था में आगे बढे । अध्यात्म योग की साधना में आगे बढे । आरंभ-समारंभ आदि के सैकडों पापों से बचे। दुनिया भर की अविरति से बचकर विरति में आए । संसार में चारों तरफ चलते कारखाने, मीलें आदि लाखों आरंभ-समारंभ की महा हिंसाओं के पाप के निमित्त से बचने के ध्येय से यह व्रत स्वीकारना उपयोगी है। अविरति के पाप आश्रव से बचने के लिए यह व्रत ६४८ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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