________________
दिशाओं में घूमता-फिरता अनेक जीवों की हिंसा का भागीदार बनता है । अतः उन-उन दिशाओं में गमन करने का त्याग करके मर्यादा बांधना हितावह है। इसके लिए यह व्रत है। जिससे समुद्री मुसाफरी आदि का नियमन हो जाएगा।
पूर्व-पश्चिम-उत्तर-दक्षिण ये चार मूल दिशाएं हैं । और ईसान, अग्निय, नैऋत्य, और वायव्य ये चार विदिशा हैं तथा ऊर्ध्व (ऊपर) और अधो (पाताल में नीचे जाने की) दिशा । इस तरह कुल मिलाकर दस दिशाएं हैं । अब व्रतधारी या तो इन दशों दिशाओं में कहाँ तक कितने माईल या किलोमीटर जाना है ? यह मर्यादा निश्चित करें । या किन दिशाओं में सर्वथा न जाना यह निश्चित करके उन दिशाओं में जाने का सर्वथा त्याग करें।
और जिन दिशाओं में जाना है तो उन दिशाओं में कहाँ तक कितने किलोमीटर जाना है? यह संख्या निश्चित करें।
और यदि दिशाओं से आपको ख्याल न आता हो तो देशों के नाम से भी निर्णय करें । उदाहरणार्थ पहला नियम तो यह हुआ कि भारत देश के बाहर न जाना । और भारत देश के बाहर जाना भी पडे तो-अमुक-अमुक...देश में ही जाने की छूट इसके अतिरिक्त सभी देशों में न जाना यह पच्चक्खाण (त्याग) किया जाय।
जैसे व्यापारार्थ या पुत्र को मिलने आदि हेतु से पुत्र के बुलाने के कारण या रोगोपचार-ओपरेशन आदि के कारण जाना पडे तो सिर्फ अमरीका या इंग्लैण्ड जाने की छूट परन्तु इसके सिवाय अन्य सभी देशों में जाने का त्याग । ___भारत देश में भारत की चारों तरफ की सीमा तक जाने की छूट परन्तु उसमें चातुर्मास में सर्वथा मेरे गाँव या घर को छोडकर बाहर नहीं जाना है ऐसा नियम होता है, श्रेणिक जैसे मगध के सम्राट, श्री कृष्ण महाराजा, कुमारपाल भूपाल आदि भी चातुर्मास के चार मास स्वदेश में अपनी राजधानी से बाहर नहीं जाते थे। चातुर्मास में बारिश आदि अनेक कारणों से अनेक जीवों की ज्यादा हिंसा होती है । अतः चातुर्मास में तीर्थयात्रा करने जाना भी निषेध है । शास्त्रों में अषाढ चातुर्मास में श्री शत्रुजय महातीर्थ (पालीताणा) पर भी यात्रा के लिए जाने का निषेध किया गया है। अतः आराधक व्रती न जाए । कार्तिकी चौमासी के काल में विदेश-या दिशा-विदिशाओं में जाना या अमुक माईल तक ही जाना ऐसा नियम ग्रहण करें।
६४६
आध्यात्मिक विकास यात्रा