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की तरह तीव्र मूर्छा से जीव संसार सागर में डूबता है । अतः धन-धान्यादि बाहा परिग्रह और राग द्वेष - कषायादि आभ्यंतर परिग्रह का त्याग करने के लिए इस परिग्रह परिमाण व्रत का स्वीकार करके आनन्द - महाशतक आदि उत्कृष्ट १० श्रमण जैसे श्रावक बनें इस आदर्श ध्येय से सच्चे व्रती - साधक बनें ।
व्रत लेनेवाले यहाँ अपनी धारणा लिखें
१. धन (रुपए - हीरा मोती आदि जेवर) (संख्या में लिखें)
२. धान्य (अनाज – कठोल) (किलो में १ वर्ष के)
३. क्षेत्र (जमीन - प्लोट - जगह )
४. वास्तु (घर-दुकान, गोडाउन, बंगला - प्लोट ) (स्थावर -मिल्कत)
५, ६. रौप्य - सुवर्ण (सोने-चांदी के गहने - बर्तनादि)
७. कुप्य, तांबा, पित्तल, कांसा, झींक, लोखन आदि धातुओं के बर्तनादि वस्तुओं की
मर्यादा
८. द्विपद (नोकर-चाकर - सेवक )
९. चतुष्पद - गाय, भैंस, घोडा, ऊँट, बकरी आदि जानवर की संख्या
छट्ठा दिग् परिमाण व्रत - (पहला - गुणव्रत)
उर्ध्वाधस्तिर्यगाशासु नियमो गमनस्य यः । आद्यं गुणव्रतं प्राहस्तद्दिग् विरमणाभिधम् ॥
ऊर्ध्व-अधो और तिच्छ दिशाओं तथा विदिशा आदि दशों दिशाओं में जाने के विषय में कुछ हद तक का नियम करना यह छट्ठा दिग्परिमाण व्रत या पहला गुणव्रत है । तीन गुणव्रत का जो स्वरूप बताया है उसमें दिग् (दिशा) परिमाण व्रत रूप इसको पहला गुणव्रत कहा है। धन- व्यापारादि के लोभ से जीव देश-विदेश चारों तरफ आशा का मारा भटक रहा है। लोभ का तो कोई अन्त ही नहीं है। लोभ को संतोष भी कहाँ है ? अति लोभ दशा के कारण जीव सारी दुनिया में घूमना चाहता है । सारी दुनिया का धन इकट्ठा करना चाहता है । या निरर्थक घूमने फिरने आदि के बहाने जाने-आने की प्रवृत्ति करना यह भी जीव की एक आदत है। ज्ञानी महापुरुष कहते हैं कि समस्त विश्व अनन्त जीव सृष्टि से भरा हुआ हैं। अविरति में फँसा हुआ जीव लोभादिवृत्ति के कारण दशों
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देश विरतिधर श्रावक जीवन
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