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________________ इत्यादि नौ से उपरोक्त प्रकार की वस्तुओं के परिग्रह का प्रमाण निश्चित करना यह इस पाँचवे व्रत का स्वरूप बताया है । जिसमें स्व-स्वामित्व अर्थात् अपना मालिकी हक्क आता हो वह अपना गिना जाता है। अतः अपने मालिकी हक्क में कितनी मर्यादा का परिग्रह रखना यह अपने को निर्णय करना चाहिए। अपने पास आज जितना है उसको ध्यान में लेते हुए और गृहस्थ जीवन की अनिवार्य आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए जो आवश्यक हो उतनी ही मर्यादा बांधकर रखनी, उतनी ही वस्तुएं रखनी । आज आपके २-४ लाख नहीं है, और आपने २-४ लाख की मर्यादा बांधी है, और भविष्य में मानों कि उतना यदि आपके पास हो गया तो फिर उस मर्यादा से अधिक आगे न रखना। धर्मादा में, सात क्षेत्र में, परोपकारादि में वापरते जाना चाहिए। अपनी बांधी हुई मर्यादा का उल्लंघन करके तोडना नहीं। इस तरह यह व्रत स्वीकारें। इन ५ अतिचारों से बचें- . १ धन-धान्य प्रमाणातिक्रम, २ क्षेत्र-वास्तु प्रमाणातिक्रम, ३ रूप्य-सुवर्ण प्रमाणातिक्रम, ४ कुप्य प्रमाणातिक्रम, ५ द्विपद चतुष्पद प्रमाणातिक्रम इन नौं ही प्रकार के परिग्रह में आपने जो-जो प्रमाण संख्या, रुपए या वस्तु के रूप में निश्चित किया हो उसका उल्लंघन नहीं होना चाहिए । धारणा का अतिक्रम अतिचार कहलाता है । अतः इन नौं ही प्रकार के परिग्रह के लिए पाँच प्रकार के अतिचार बताए हैं । इनसे बचें । और अपनी धारणा न तोडें । धारणा पूरी होने के पहले ही वस्तु या धन राशी दानादि शुभ कार्य में वापरें। जयणा-अज्ञान वश, अन्जान में, भूल से धारी हुई संख्या के ऊपर आपकी धन राशी आदि-बढ गई, और उसका शुभ कार्य करने में उपयोग करने के आयोजन में देरी हुई, भावना शुभ है, वापरना चाहते हुए भी योजनाबद्ध शुभ आयोजन में वापरने में देरी हुई उसकी जयणा । वर्षान्त के समय गिनति में ध्यान न रहा और संख्या बढ गई, धारणा बढी तो उसकी जयणा, परन्तु शीघ्र प्रमाण करके अपनी मर्यादा निश्चित कर लें। _____ ध्येय-मूर्जा महापरिग्रह है । परिग्रह से हिंसा और हिंसा से पुनः परिग्रह यह भयंकर विषचक्र चल रहा है । अनेक पापों की जड यह परिग्रह है । परिग्रह वृत्ति के कारण तृप्ति और संतोष नहीं आता है। अतः असंतुष्ट और अतृप्त तृष्णा से जीवन में सुख-शांती कभी भी प्रगट नहीं होती है । अतः सर्वत्र प्रभु ने इस इच्छा परिमाण (संतोष) व्रत की संयोजना बताई है। मू-ममत्व से सैंकडों जन्म जीव के बिगड़ते हैं। छिद्रवाली नांव ६४४ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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