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________________ जयणा - घर - घर में, पति-पत्नि के संबंध में अति प्रेमादि के व्यवहार में, मेहमानादि के रूप में किसी के घर आए और उनकी वस्तु हमारे साथ आ गई, इत्यादि की जया रखें। और वस्तु शीघ्र वापिस लौटा देना । नींद में, स्वप्न में चोरी के विचार आ जाय, अन्जान में भूल से किसीकी वस्तु वापिस देनी रह गई (जब ख्याल आए तब तुरन्त लौटाना), भूल में किसीका जूता, कपडा आदि पहन लिया, या आदत वश टांकनी, दियासलाई आदि गल्ती से बिना पूछे ले ली इत्यादि में जयणा । ध्येय दौर्भाग्यं प्रेष्यतां दास्य- मऽगच्छेदं दरिद्रताम् । अदत्तात्तफलं ज्ञात्वा, स्थूलस्तेयं विवर्जयेत् ॥ चौर्य पापद्रुमस्येंह, वध बन्धादिकं फलम् । जायते परलोकं तु फलं नरकवेदना ॥ — दौर्भाग्य कमनशीबपने का उदय, नोकर-चाकर और दास - गुलाम बनने के दिन आए, तथा अंगोपांग काटने आदि का प्रसंग आए, जेल - सजा आदि का प्रसंग आए, दरिद्रता भिखारीपना - गरीबी आदि के फल जिस चोरी करने के पाप के फलस्वरूप आए उस स्थूल स्तेयवृत्ति (चोरी) का भी त्याग करना चाहिए। चोरी रूप पाप का यह एक ऐसा वृक्ष है जिसके वध, फांसी, जेल, बन्धादि इस जन्म में फल मिलते हैं। और परलोक में नरक में जाकर असह्य वेदना सागरोपमों तक सहन करने के दिन आते हैं । अतः स्थूल रूप से भी चोरी - (अदत्तादान) न करने का व्रत स्वीकारना ही हितावह है। इससे लोभ वृत्ति कम होगी और पुणिया श्रावक के जैसा बनने का ध्येय रखें । चौथा अणुव्रत स्थूल मैथुन विरमण व्रत - स्वकीयदारा सन्तोषो वर्जनं वाऽन्ययोषिताम् । श्रमणोपासकानां तच्चतुर्थाणुव्रतं मतम् ॥ स्व = अपनी, दारा = पत्नी, स्वपत्नी में ही संतोष मानना और अपनी से पराई स्त्रियों के साथ मैथुन संबंध का सर्वथा त्याग करना यही श्रमणोपासक = अर्थात् श्रावक के योग्य चौथा अणुव्रत है । परस्त्री अर्थात् अन्य मनुष्यों की परिणीत या संगृहीत स्त्रियाँ, देव गति के देवताओं की परिगृहीता या अपरिगृहिता देवियाँ, पशु जाति की मादाएं इत्यादि सभी के साथ मैथुन सेवन का सर्वथा त्याग करना यह श्रावक जीवन योग्य चतुर्थ अणुव्रत कहा है। देश विरतिधर श्रावक जीवन ६३७
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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