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चउत्थे अणुव्वयंमी निच्चं परदारगमण विरईओ।
आयरिअमप्पसत्ये, इत्थ पमायप्पसंगेणं॥ - नित्य परस्त्रीगमन के त्यागरूप इस चौथे अणुव्रत के विषय में यदि प्रमादादि के कारण अप्रशस्त भाव से कोई विपरीत आचरण हुआ हो तो मैं प्रतिक्रमण करता हूँ। इस चौथे अणुव्रत में दो तीन तरीके से कहा गया है जिससे इसका स्वरूप स्पष्ट होगा। १. परदारगमन विरई- अर्थात् स्व से भिन्न जितनी पराई स्त्रियाँ है उनके साथ गमन
करने रूप मैथुन सेवन के संबंध का सर्वथा त्याग करना यह चौथा अणुव्रत हुआ। २ स्वदारा संतोष व्रत-जगत की पराई सभी स्त्रियों का त्याग करके अपनी ही स्त्री
में संतोष मानना, स्वस्त्री के साथ मैथुन संबंध में संतोष मानना, परन्तु पराई स्त्री की इच्छा भी नहीं करना । यह भी चौथा अणुव्रत का अर्थ है। मैथुन विरमण व्रत-मैथुन काम क्रीडा, रति क्रिया से विरक्त होने की भावना है। अन्य परस्त्रियाँ हो या, जो किसीकी पत्नी नहीं है ऐसी वेश्याएँ या कुमारिका कन्या आदि के साथ भी मैथुन संबंध का सर्वथा त्याग करना, जिस स्त्री के साथ आपने शादी की है वह आपकी अपनी खुद की स्त्री हुई, उसी के साथ देह संबंध करना और उसी में संतोष मानना । परन्तु परस्त्री के साथ देह संबंध कभी भी नहीं करना यह भीष्म प्रतिज्ञा इस चौथे अणुव्रत में ली जाती है।
पुरुष प्रधान धर्म होने से यहाँ पुरुष को संबोधित करके पुरुष को उद्दिष्ट करके बात की जाती है । इसका मतलब यह नहीं है कि स्त्रियों के लिए यह व्रत नहीं है । नहीं, ऐसी बात नहीं है। स्त्रियाँ इस व्रत में यह स्पष्ट समझें कि पर पुरुष के साथ देह संबंध, मैथुन संबंध का सर्वथा त्याग करना, और स्वपति में ही संतोष मानना यह संकल्प इस चौथे अणुव्रत में स्त्रियाँ करें। चौथे व्रत के ५ अतिचार
अपरिग्गहिआ इत्तर, अणंगविवाहतिव्व अणुरागे।
चउत्थ वयस्सअइयारे, पडिक्कमे देवसि सव्वं ॥ १. अपरिगृहीता गमन-जिसका कोई स्वामी नहीं है, जिस स्त्री को अभी किसी ने ग्रहण नहीं किया है ऐसी कन्या, विधवा आदि के विषय में यह किसीकी पराई स्त्री नहीं है ऐसा विचार करके विधवा एवं कन्या के साथ यदि संबंध करें तो परस्त्री त्यागी को यह
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आध्यात्मिक विकास यात्रा