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२६. किसी पर झूठा केस न करना ।
२७. किसी के भी साथ दंभ - कपटाचरण न करना ।
२८. सत्य हो, फिर भी कटु हो, अप्रिय हो, तो न बोलें । .
दूसरे व्रत में जयणा - किसी की रक्षा के लिए झूठ बोला जाय, किसी मरते हुए को बचाने के लिए झूठ बोलना पडे । एका एक अचानक अनुपयोग दशा में असत्य मुँह से निकल जाय, भूल से झूठ बोला जाय, बातचीत में, हँसी-मजाक में एका एक झूठ बोला जाय, अज्ञानता से न जानने के कारण असत्य निकल जाय आदि की क्षमा ।
ध्येय - सत्यवादि बनने का ध्येय रखें। क्रोध, लोभ, भय, हास्यादि से भी झूठ बोलना नहीं चाहिए । स्वधर्म की निंदा - अवहेलना, अपने कुल, खानदानी, प्रतिष्ठा की भी. हानि न हो, लोक में प्रशंसापात्र बनें, जन-जन के विश्वासपात्र बनें, हित-मित, पथ्य - सत्य बोलें । वचनसिद्धि की प्राप्ति हो, परोपकार कर सकें, अच्छे-सच्चे उपदेशक बन सकें इत्यादि ध्येय से मृषावाद का त्याग करें । सत्य ही भगवान है, अतः सत्य के उपासक बनें । सच्चे साधक बनने के लिए सत्य बोलना यह अपना ध्येय बनावें ।
तीसरा अणुव्रत - अदत्तादान विरमण व्रत
परस्वग्रहणाच्चौर्य व्यपदेशनिबन्धनान् । या निवृत्तिस्तृतीय तत् प्रोचे सार्वैरणुव्रतम् ॥
पर धन की चोरी करने से " यह चोर है इसने चोरी की है" ऐसा आरोप आए, अर्थात् लेनेवाले को लोग चोर समझे। ऐसा परधन नहीं चोरने की प्रतिज्ञा करना इसे तीर्थंकर भगवंतों ने तीसरा अदत्तादान विरमण नामक अणुव्रत कहा है 1
दत्तं = दिया हुआ, आदान = लेना, अर्थात् किसी के द्वारा दिया हुआ दान (वस्तु आदि) लेना यह दत्तादान कहलाता है । यह उचित व्यवहार है । धर्म है। जबकि निषेधवाची 'अ' अक्षर आगे लगाकर अ + दत्त + आदान = अदत्तादान अर्थात् किसी मालिक के द्वारा न दिया हो फिर भी ले लेना, जिसकी वस्तु है उस मालिक की आज्ञा के बिना दिये, उसकी आज्ञा के बिना वस्तु लेनी यह अदत्तादान अर्थात् चोरी कहलाती है । इस स्तेयवृत्ति का त्याग करना, चोरी न करने की प्रतिज्ञा करना यह अदत्तादान विरमण व्रत नामक तीसरा अणुव्रत है।
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आध्यात्मिक विकास यात्रा