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________________ धर्म-सर्वज्ञ अरिहंत तीर्थंकर भगवान के द्वारा उपदिष्ट प्ररूपित तत्त्व को मानना, जानना और पालना यही धर्म है । “जिणपन्नत्तं तत्तं" जिनेश्वर के द्वारा प्ररूपित तत्त्व को मानना । सर्वज्ञ ने जिस अर्थ से उपदेश दिया और गणधरों ने जिसे सूत्रबद्ध गूंथकर आगमरूप से प्रवाहित किया है, उसीकी आज्ञा को मानना. यह धर्म तत्त्व की श्रद्धा है। "जीवाइ नवपयत्थे जो जाणई तस्स होइ सम्मत्तं" जीव(आत्मा) अजीव, पुण्य-पाप (कर्म), आश्रव, संवर, निर्जरा, बंध, और मोक्षादि नौं तत्त्वमय जिन धर्म को मानना यह धर्मगत श्रद्धा है। अतः सम्यग् श्रद्धा ऐसी होनी चाहिए कि- “जं जं जिणेहि भासियाई तमेव नि:संकं सच्चं" जो जो जिनेश्वर भगवंत ने कहा है वही शंकारहित सत्य ही है, यह मानना शुद्ध दृढ श्रद्धा ही सम्यक्त्व का स्वरूप है । अतः सर्वज्ञ तीर्थंकर परमात्मा को और उनके वचन-आज्ञादि को यथार्थ शुद्ध रूप में मानना यही सम्यक्त्व है । और जैसा मानना वैसा . ही वर्तन करना-आचरना चाहिए। लोकोत्तर देव-गुरु-धर्म को लोकोत्तर-स्वरूप में ही मानना-जानना-पूजना आदि तथा लोकोत्तर की उपासना स्तोत्रादि लोकोत्तर पद की प्राप्ति के लिए ही करनी । परन्तु लौकिक सांसारिक सुखों के लिए नहीं करनी। और वैसे ही लौकिक सरागी देव-गुरु के पास लोकोत्तर चरम मोक्षादि की प्रार्थना भी नहीं करनी। जितनी देव-गुरु-धर्म तथा तत्त्वों पर श्रद्धा है उतनी ही कर्मसत्ता पर भी श्रद्धा रखनी चाहिए, क्योंकि यह सर्वज्ञ ने बताई है। ईश्वर को जगत् का कर्ता, सुखी-दुःखी करनेवाला है ऐसा . मानना मिथ्यात्व है । स्वकृत कर्मानुसार ही सुख-दुःख मिलता है। सम्यक्त्वी की प्रार्थना अरिहंतो मह देवो, जावज्जीवं सुसाहुणो गुरुणो। जिण पन्नतं तत्तं, इअ सम्मत्तं मए गहिअं॥ यावत् जीवन पर्यन्त अर्थात् अंतिम श्वास तक, जब तक शरीर में जीव है, (जब तक जीव संसार में है) तब तक अरिहंत ही मेरे देव (भगवान) हैं, सुसाधु ही मेरे गुरु है और जिनोपदिष्ट तत्त्व ही मुझे तत्त्वस्वरूप में मान्य है, अर्थात् जिनेश्वर प्ररूपित तत्त्व ही मेरा धर्म है। यही सम्यक्त्व (श्रद्धा) मैंने ग्रहण किया है । यही सम्यक्त्वी की प्रार्थना होनी चाहिए और प्रतिज्ञा भी होनी चाहिए। ६२२ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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