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________________ २४ तीर्थंकरों को ही वीतरागी अरिहंत भगवान मानना चाहिए। और रागी-द्वेषी देव-देवियों को भगवान के रूप में न मानें, न पूजें । २४ तीर्थकर के यक्ष-यक्षिणी आदि । भगवान नहीं हैं। वे तीर्थंकरों के रक्षक देव-देवी है । वे उनके शासन के रखवाले हैं। राजा के अंगरक्षक की तरह हैं । अतः उन्हें भगवान के रूप में नहीं मानना और नहीं पूजना चाहिए। “तदसिजगति देवो वीतरागस्त्वमेव इसीलिए जगत् में एकमात्र तीर्थंकर सर्वज्ञ अरिहंत भगवान ही वीतरागी देव है । ऐसी श्रद्धा रखनी सम्यक्त्व है । परमेश्वर, परमात्मा, परमेष्ठि जिन, जिनेश्वर, वीतरागी, वीतराग, अरिहंत, तीर्थकर, भगवान आदि समानार्थक एक सरीखे पर्यायवाची नाम हैं। गुरु तत्त्व-आत्मा के अज्ञानरूपी अन्धकार को मिटानेवाला और ज्ञानाञ्जन करके नेत्रोन्मीलन करनेवाला गुरु तत्त्व है । अतः किसे गुरु मानना? कैसे गुरु को गुरु मानना इसका भी विचार सम्यक्त्व में किया है। महाव्रतधारी धीरा भैक्ष मात्रोपजीविनः। सामायिकस्था धर्मोपदेशका गुरवो मता ।। — अहिंसा सत्यादि पाँच महाव्रत के धारक, धैर्यगुणसंपन्न छः काय का आरंभ समारंभ न करते हुए मात्र भिक्षावृत्ति-गोचरी (माधुकरीवृत्ति) पर ही जीनेवाले,तथा आजीवन चारित्र (दीक्षा) धारी, सर्व विरति चारित्र में रहनेवाले, यथार्थ धर्म के उपदेशक 'गुरु' माने जाते हैं। पंचिंदिअ सूत्र में ३६ गुणों के धारक को गुरु मानने का कहा है । वे इस प्रकार हैं ५ इन्द्रियों का संवरण करनेवाले। ९ ब्रह्मचर्य की वाड का पालन करनेवाले। ४ प्रकार के कषाय को छोडनेवाले। : ५ महावत से युक्त। ५ प्रकार के आचारों को पालने में समर्थ । ५ समिति का पालन करनेवाले। ३ गप्ति का पालन करनेवाले। ३६ ऐसे छत्तीस गुणों के धारक मेरे गुरु हैं। अर्थात् गुरु पद पर बिराजमान ३६ गुण के धारक पंच महाव्रतधारी कंचन-कामिनि के त्यागी आजीवन चारित्रवान को ही गुरु मानना यही शुद्ध श्रद्धा है। इससे भिन्न सर्वेच्छावाले कंचन-कामिनि रखने वाले, सब कुछ खानेवाले, परिग्रहवाले, अब्रह्मचारी, मिथ्या उपदेश करनेवाले को गुरु नहीं मानना। देश विरतिधर श्रावक जीवन ६२१
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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