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छोटे-छोटे नियम भी दिये हैं। साधक इन्हें पढकर समझकर व्रतों का स्वीकार करके व्रतधारी शुद्ध श्रावक बनें। सभी आनन्द - कामदेवादि जैसे महान आदर्श श्रावक बनें ।
सम्यक्त्व का स्वरूप
बारह व्रत स्वीकारने के पहले देव - गुरु और धर्म के ऊपर शुद्ध श्रद्धा धारण करनी चाहिए । अतः बारह व्रत से अतिरिक्त पहले सम्यक्त्व का स्वरूप बताते हैं ।
या देवे देवता बुद्धिर्गुरौ च गुरुतामतिः । धर्मे च धर्मधीशद्धा सम्यक्त्वं तदुदीरितम् ॥
(यो. शा.)
जो राग- द्वेष रहित शुद्ध वीतरागी - सर्वज्ञ देव (भगवान) है उसी में देवपने की अर्थात् भगवान मानने की बुद्धि, और पंचमहाव्रतधारी कंचन-कामिनि के त्यागी ऐसे जो गुरु हैं उन्हें ही गुरु मानने की बुद्धि, तथा सर्वज्ञ कथित शुद्ध धर्म को ही धर्म मानने की शुद्ध बुद्धि इसे ही सम्यक्त्व कहा है ।
देव तत्त्व
देव
लौकिक (रागादि युक्त)
लोकोत्तर (रागादि रहित)
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जगत् में लौकिक और लोकोत्तर दो प्रकार के देव है । जो राग-द्वेषादि अनेक दोषों से भरे हुए हों उन्हें वीतरागी अरिहंत के रूप में न मानना न पूजना । परन्तु “ अष्टादशदोषवर्जितो जिनः " १८ दोष से जो रहित है वही जिन है । सर्वथा राग-द्वेष आदि पाप दोषों से रहित जो वीतरागी जिन भगवान है, अरि = आंतर शत्रु कर्म, हंताणं = उनका नाश करनेवाले ऐसे अरिहंत भगवान, तथा मोक्षमार्ग प्ररूपक जो सर्वज्ञ तीर्थंकर परमात्मा है उन्हें ही आराध्य देव भगवान मानना - पूजना यही सम्यक्त्व है । देव शब्द देव गति के देवी-देवता के अर्थ में भी है, परन्तु यहाँ देव शब्द भगवान के अर्थ में है । जो देवाणवि देवो जं देवा पंजलि नमंसंति । तं देवदेवमहिअं सिरसा वंदे महावीरम् ॥
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जो देवताओं के भी देव हैं, जिन्हें देवता भी अंजलिबद्ध नमस्कार करते हैं, उस देवताओं के भी देव इन्द्रादि से पूजे गए भगवान महावीरस्वामी को मस्तक झुकाकर वंदन करता हूँ । “सिद्धाणं बुद्धाणं” की इस गाथा में आप स्पष्ट देखेंगे कि देवताओं के भी पूज्य देवाधिदेव को भगवान मानने का कहा है । अतः शुद्ध श्रद्धाधारी को महावीरस्वामी आदि
आध्यात्मिक विकास यात्रा