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भी अनिवार्य है । सम्यक्त्व का स्वरूप साधु या श्रावक दोनों के लिए एक समान ही है । वीतरागी देव को ही भगवान, त्यागी को ही गुरु, और सर्वज्ञोपदिष्ट तत्त्व को धर्म माननेवाला ही शुद्ध सम्यक्त्वी श्रद्धालु कहलाएगा। अतः पहले सम्यक्त्व व्रत स्वीकारना फिर बारह ही व्रत स्वीकारना ।
मोक्ष मार्ग साधक और आत्म गुण स्वरूप जो मुख्य दर्शन - ज्ञान - चारित्रादि रत्नत्रयी स्वरूप है, तद्वान् ही साधु है और श्रावक भी । आखिर मोक्ष मार्ग तो एक ही है । व्रत की मर्यादा भले ही कम ज्यादा हो श्रावक शब्द की रचना ही कैसे बनी है ? यह देखिए
श्रा - व - क = श्रावक
श्रद्धा : विवेक - क्रिया = ३ गुण
( दर्शन - ज्ञान
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. चारित्र) = रत्नत्रयी
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श्रद्धा शब्द का 'श्र' विवेक शब्द का 'व' और क्रिया शब्द का 'क' इस तरह इन तीन शब्दों को लेकर उनके संयोजन से श्रावक शब्द बनाया गया है। अर्थात् यह श्रावक शब्द सम्यग् दर्शन = सम्यक्त्व अर्थात् श्रद्धा सम्यग्ज्ञान अर्थात् विवेक और सम्यग्चारित्र अर्थात् क्रिया रूप तीनों का धारक हो वह श्रावक कहलाता है । आखिर तो आत्मगुण की ही उपासना है । मोक्षमार्ग की ही साधना है । १४ गुणस्थानों में . चौथा और पाँचवा गुणस्थान श्रावक के लिए है। चौथे अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान पर का श्रावक व्रत - पच्चक्खाण रहित केवल श्रद्धावंत ही है, सम्यक्त्वी ही है जबकी १२ व्रतों को स्वीकारे, पच्चक्खाण करे तो वही पाँचवे देशविरति - विरत सम्यक् दृष्टि गुणस्थानों में श्रावक चौथे पाँचवे गुणस्थान का मालिक है। श्रद्धालु सम्यक्त्वी तथा व्रती है। आगे का छट्ठा गुणस्थानक जो सर्वविरति - साधु का है उसका ध्येय दृष्टि समक्ष रखनेवाला, साधुता (दीक्षा) की प्राप्ति की सतत झंखना रखनेवाला, श्रावक दूसरे शब्दों में श्रमणोपासक कहलाता है | श्रमण = साधु, उपासक साधक । अतः भविष्य में साधुत्व की भावना रखते हुए श्रावक को मोक्ष मार्ग की सीढी पर आगे बढना है ।
. अतः इस मोक्ष मार्ग की सीढी रूप १४ गुणस्थानों में चौथे व पाँचवे गुणस्थान का क्या स्वरूप है ? वहाँ व्रतादि कैसे होते हैं ? तथा सम्यक्त्व सहित १२ व्रतों का क्या स्वरूप है ? कैसे अतिचारों से बचना चाहिए ? आदि का स्वरूप संक्षेप से बताते हैं । शास्त्र के मूल श्लोकों के आधार पर सरल-सुगम भाषा में लिखा है। समझने के लिए
देश विरतिधर श्रावक जीवन
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