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व्रतधारी श्रावक बन जाय । ब्राह्मणों के उपनयन संस्कार की तरह जैन धर्म में व्रतोच्चारण संस्कार है । श्रावक जीवन योग्य व्रतों का स्वीकार करके सच्चे अर्थ में जैन श्रावक बनना ।
तीर्थंकर प्रभु को केवलज्ञान होते ही वे सर्वज्ञ-सर्वदर्शी बनें । तीर्थंकर भगवान ने समवसरण में (१) सर्व विरति और (२) देशविरति रूप दो प्रकार का विरति धर्म फरमाया । (१) सर्वथा सर्व सावद्य प्रवृत्ति आदि पापों का आजीवन त्याग करनेवाला सर्व विरति धर्म ( चारित्र - दीक्षा) को स्वीकारनेवाला साधु-मुनि बना । जिसमें साधु-साध्वी दोनों आए । और जो सर्व-विरति धर्म स्वीकारने में असमर्थ - अक्षम रहे उनके लिए भगवान ने देश विरति-धर्म का स्वरूप बताया । देश = अर्थात् अल्प । सर्व की अपेक्षा कुछ कम । ऐसी पाप निवृत्ति रूप विरति - देश - विरति धर्म के व्रत - नियमों का पच्चक्खाण पूर्वक स्वीकार करनेवाले श्रावक-श्राविका कहलाए । अतः सर्वज्ञ तीर्थंकर भगवान ने चातुर्वर्ण वर्णाश्रम की जातिवाद के आधार पर व्यवस्था न करते हुए गुण और धर्म के आधार पर १. साधु, २. साध्वी, ३. श्रावक, ४. श्राविका रूप चतुर्विध संघ की व्यवस्था की है। यह संघ ही जंगम तीर्थ की प्रतिष्ठा पाया ।
बताए गए १८ पापस्थानों की निवृत्ति के आधार पर विरति धर्म है । अहिंसा - सत्य - अस्तेय - ब्रह्मचर्य - अपरिग्रह के पाँच महाव्रतों को स्वीकारनेवाले साधु होते हैं । परन्तु इन्ही महाव्रतों को संपूर्ण रूप से न स्वीकारं करनेवाला, कुछ छूट-छाट के साथ, कुछ मर्यादा में अहिंसा - सत्यादि को ही अल्प (अणु) रूप में स्वीकारनेवाला अणुव्रतधारी सुश्रावक कहलाता है। श्रावक के लिए तीन मुख्य विभाग में १२ व्रत बताए गए है ।
१२ व्रत- ५ अणुव्रत + ३ गुणव्रत + ४ शिक्षाव्रत
अहिंसा-सत्यादि ५ अणुव्रत है। अणु का अर्थ है छोटा, अल्प । साधु महात्मा के महाव्रतों के सामने ये ५ छोटे - अल्प प्रमाण में अणुव्रत है । दिक् परिमाण, भोगोपभोग परिमाण तथा अनर्थदण्ड विरमण ये ३ गुणव्रत है । और सामायिक देशावकाशिक, पौषध तथा अतिथि संविभाग आदि ४ शिक्षाव्रत हैं। अणुव्रत पापों को काटकर अणु = अणु रूप में कर देता है । गुणव्रत जीवन में गुणों को विकसाता है । और शिक्षा व्रत आत्मा को धर्म की शिक्षा देकर सुशिक्षित बनाता है । इस तरह १२ व्रत का धारक सुश्रावक होता है । गृहस्थीपने में से श्रावक बनने के लिए व्रतोच्चारण के संस्कार अनिवार्य हैं। इन १२ व्रतों के साथ सबसे पहले मिथ्यात्व का त्याग करके सम्यक्त्व (सच्ची - श्रद्धा) स्वीकारना
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आध्यात्मिक विकास यात्रा