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________________ डॉक्टर, वैद्य एक बोटल में मिश्रण हिला-मिलाकर दे देता है... उस में दर्दी को कुछ भी ज्ञान-समझादि न होते हुए भी वह उस दवा का सेवन भी करता है और सेवन के फल स्वरूप ज्वरादि से रोगनिवृत्ति का फल लाभ भी पाता है । ठीक उसी तरह अश्रद्धा-से सच्ची श्रद्धा-समझादि के अभाव में भी यदि धर्मक्रियादि धर्माचरण करता भी है तो वह पुण्य फलरूप लाभ, सावद्य-पापादि से बचने आदि का लाभ तो जरूर पाएगा। और भावि में आगे सत्य यथार्थस्वरूप समझकर आगे के गुणस्थानों पर भी चढेगा। संस्कार अच्छे बनेंगे ऐसा लाभ तो पाएगा। और यही प्रक्रिया अपुनर्बंधक की बन जाएगी तो आदिधार्मिक बनेगा। भारी उत्कृष्ट कर्मबन्ध की स्थितियाँ नहीं बांधेगा। कितना बचाव होगा। और इसी धर्माचरण की प्रक्रिया में आत्मा के अध्यवसायों की शुद्धि बढेगी, .. शक्ति बढेगी तो एक दिन यथाप्रवृत्तिकरणादि तीनों करण करता हुआ जीव राग-द्वेष की निबीड ग्रन्थि का भेद करके सम्यग् दर्शन ही पा लेगा। चौथे गुणस्थान पर भी आरुढ हो सकेगा । और आगे पाँचवे गुणस्थान पर भी पहुँच सकेगा। तब उसके भावों में, आचरण में, विचारो में, क्रिया में, सब में आसमान-जमीन का अन्तर पहले की अपेक्षा ज्यादा ही लगेगा। इस तरह क्रमशः आगे विकास अच्छा होगा। श्रावक जीवन योग्य व्रतादि का स्वरूप व्रत की उपयोगिता अनेक जन्मों की संचित पुण्याई के अनुसार आज यह जन्म मनुष्यगति में मिला है। आर्य देश, आर्य जाति, आर्य कुल और उसमें भी वीतराग के शासन में सुंदर जन्म मिला है। उत्तम सर्वांग सुंदर देह मिला है। मोक्षगामी मुमुक्षु को एक-एक पल जीवन को कीमती समझकर प्रमाद में न गुमाते हुए सदुपयोग करना है । जन्म जात कोई धर्मी नहीं है, कोई ज्ञानी विद्वान नहीं है । कोई शुद्ध श्रावक या साधु भी नहीं है । परन्तु आगे व्रतादि के पच्चक्खाण ग्रहण करने से श्रावक या साधु बनता है। जैसे हिन्दु धर्म में जन्म से जन्मे हुए बालक का आठवें वर्ष उपनयनादि संस्कार कराके उसे अब सच्चा ब्राह्मण बनाते हैं । द्विज का अर्थ ही यह है कि दुबारा जन्म। दो बार जन्म। प्रथम जन्म तो मातृ कुक्षी से था और दूसरा जन्म उपनयनादि संस्कार जन्य है। उसी तरह जैन कुल में जन्मा हुआ जीव जन्म से तो जैन, जाती से जैन, पहचानमात्र के लिए तो जैन कहलाएगा। परन्तु वास्तव में वह सच्चा जैन तो तब कहलाएगा जब शुद्ध देश विरतिधर भावक जीवन ।
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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