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बात भी सही है कि . . धर्म करने के पहले धर्म को सही अर्थ में जानना-समझना-मानना अत्यन्त जरूरी है। उसके बाद ही आचरण सार्थक फलदायी सिद्ध होता है । इस दृष्टि से तो व्यवस्था तथा गुणस्थानों का क्रम बिल्कुल सही है । पहले चौथा अविरत सम्यग् दृष्टि गुणस्थान है इस पर देव गुरु और धर्म तत्त्व का स्वरूप सही अर्थ में वास्तविक सच्चे अर्थ में समझ लिया जाय। और उस पर सच्ची श्रद्धा मान्यता बना ली जाय.. उसके पश्चात् पाँचवे गुणस्थान पर उसी समझे हुए-माने हुए धर्म का आचरण करना यही सर्वश्रेष्ठ सत्यमार्ग है । उचित क्रम है।
जो जीव चौथे गुणस्थान का स्पर्श भी नहीं करते हैं, श्रद्धा बिल्कुल नहीं बनाते हैं, और न ही कुछ जानते-समझते हैं, फिर भी व्यवहार नय से धर्म का आचरण करते हैं। क्रिया का व्यवहार करते हैं, वे अपने आपको पाँचवे गुणस्थान पर मान लें तो उचित नहीं लगता है । हाँ, ठीक है, लोक व्यवहार की दृष्टि से ठीक है । ऐसी कई प्रकार की धर्मक्रियाएँ ..लौकिक व्यवहार की दृष्टि से पहले मिथ्यात्व के गुणस्थान पर भी मिथ्यात्व की मन्दता के कारण हो सकती है । अन्यथा अनन्तानुबन्धी कषायादि के साथ मिथ्यात्वादि का सर्वथा त्याग करके अपूर्वकरण आदि तीनों करण करने पूर्वक सम्यग् दृष्टि बनकर बाद में पाँचवे गुणस्थान पर आकर फिर व्रतादि का आचरण करना यह राजमार्ग है । इस पर इसी तरह क्रमशःआगे बढे हुए बहुत ही गिनति के जीव मिलेंगे। परन्तु मिथ्यात्व की अत्यन्त मन्दतम अवस्था में अपुनर्बंधक-आदि धार्मिक अवस्था में धर्मक्रिया आचरण आदिवे और वैसी व्यवहार दृष्टि से होनेवाली अनेक प्रकार की क्रिया करने मात्र से पाँचवे गुणस्थान पर हैं ऐसी भ्रान्ति-भ्रमणा नहीं रखनी चाहिए। लौकिक व्यवहार में व्यावहारिक दृष्टि से, या गतानुगतिकता से किसी की देखकर भी की जानेवाली धर्मक्रियाएँ धर्माचरण काफी है। वे सर्वथा गलत भी नहीं है । सर्वथा त्याज्य भी नहीं है । हाँ, बच्चा पाटी-पेन हाथ में लेकर यदि कुछ भी लिखने की चेष्टा करता है तो उसे विद्वान नहीं कहा जा सकता। हाँ, इसी तरह सीखेगा, लिखेगा.. कुछ कुछ आगे बढेगा.. यहाँ तक सही है । इसी तरह चौथे, पाँचवे गुणस्थान की भूमिका में भी इसी दृष्टि से समझना चाहिए। _____ नासमझ में न जानते-समझते हुए या बिना श्रद्धा से भी लौकिक व्यवहार नय से जो धर्मक्रिया-धर्माचरण किया भी जाता है, तो वह सर्वथा निरर्थक या त्याज्य नहीं है। आज नकली कर रहा है तो कल असली तक पहँच जाएगा। छोटे बच्चों को प्लास्टिक के खिलौने, नकली कागज के फूल, फल आदि द्वारा जो ज्ञान दिया जाता है तो बालक उस माध्यम से भी ज्ञान प्राप्त कर लेता है । तब एक दिन सही सच्चा सम्यग् ज्ञान भी पाएगा।
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आध्यात्मिक विकास यात्रा