________________
यही बात “नमो अरिहंताणं" के पहले पद के अरिहंत शब्द में कही है । अतः हमारे आराध्य देव-उपास्य देव परमात्मा अरिहंत ही उस अर्थ के हैं। अरि' = अर्थात् कर्म शत्रु, राग-द्वेषादि उन कर्म शत्रुओं का- आत्मा के आन्तरिक रिपुओं का जिसने 'हनन' अर्थात् क्षय किया है, वे ही अरिहंत, वैसे ही अरिहंत हमारे उपास्य परमात्मा भगवान है। यही शब्द अरिहंत भगवान बनने की प्रक्रिया भी सूचित करता है और साधक को भी अर्थ का सही संबोधन करता है । हे साधक ! तुझे भी क्या करना है ? किस लक्ष्य पर चलना है? जिस पर मैं चला हूँ, और मैंने जैसा कर्मक्षय किया है, ठीक वैसा ही कर्मक्षय अरिओं का हनन-नाश तुझे भी करना है। ऐसा प्रभु संबोधन करके कह रहे हैं। इससे हमारा कर्तव्य ही बन जाता है कि.. हम भी इसे ही साध्य बनाकर.. उसी कर्मक्षय–अरिनाश की दिशा में आगे बढें । तब सही अर्थ में नवकार सार्थक सिद्ध होगा। ऐसे मंत्रपदों का बार-बार जाप करना है.. जाप करने से, रटन करने से अर्थरूप साध्य का लक्ष्य भी दृढ हो जाता है । अतः दृढता लाने के लिए ऐसे महामन्त्र के पदों का रटणं-जापादि की प्रक्रिया बहुत ही अच्छी सार्थक है । नवकार के इन पदों का साध्यरूप में निर्धार करके लक्ष्य बनाकर तदनुरूप मानसभावादि बनाकर सतत पुरुषार्थ करने से साध्य साधा जा सकता है। ४ थे और ५ वे गुणस्थान में अन्तर
१४ गुणस्थानों में ४ थे गुणस्थान का नाम है- अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान । तथा ५ वे गुणस्थान का नाम है- देशविरत गुणस्थान । ४ थे गुणस्थान के नाम की सार्थकता यह दिखाई देती है कि..४ थे पर जीव आचार में विरतिधर नहीं है । मात्र श्रद्धा सम्पन्न जरूर है। मान्यता शुद्ध है। श्रद्धा सच्ची है। महाराजा श्रेणिक की जीवनभर यही कक्षा रही । वे आजीवन ४ थे गुणस्थान पर सम्यक्त्वी -शुद्ध श्रद्धालु बनकर रहे । परन्तु आचरण में व्रत-विरति-पच्चक्खाण कुछ भी नहीं आया। उन्होंने सम्यग्दर्शन की कक्षा इतनी सुदृढ-मजबूत बनाई थी की इसके बाहर कभी विचार तक नहीं किया। सदा वे अपनी श्रद्धा की कक्षा में इतने स्थिर रहे कि वह स्थिरता उनके कल्याण में कारण बनी। . पाँचवे गुणस्थान पर वही चौथे की श्रद्धा क्रियान्वित सक्रिय बन जाती है। यहाँ
आचरण प्रारंभ होता है। अतः कहा जाता है कि पाँचवा गुणस्थान आचारप्रधान है, क्रियाप्रधान है । जबकि चौथा गुणस्थान विचारप्रधान है । श्रद्धायुक्त सम्यग् विचारों की श्रेष्ठता चौथे पर है। वहाँ आचार प्रधानता नहीं है। सावध पापादि प्रवृत्तियों का त्याग नहीं हुआ है। मान्यता, समझ जानकारी स्पष्ट हो जाती है। बाद में आगे आचरण शुरु होगा।
देश विरतिधर श्रावक जीवन
६१५