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________________ कारण कर्मेन्द्रिय कहते हैं इनको । इस तरह श्रावक शब्द कितना गंभीर है ! यह सोचिए । जो मन से सोचने, विचारने में श्रद्धापूर्वक, सम्यग्दर्शन पूर्वक आत्मा-परमात्मा, कर्म-धर्म के तत्त्वों के बारे में ही सोचे विचारे । भाषा-वचन योग से सम्यग्ज्ञान को बातें बोलें । ऐसे तत्त्वभूत पदार्थों के बारे में ज्ञान का भाषा व्यवहार करें । तथा हाथ-पैरादि कर्मेन्द्रियों से भी क्रियात्मक रूप से सम्यग्चारित्रधर्म की उपासना करता है । अतः मन-वचन-काया के त्रिकरणयोग से सम्यग् दर्शन - ज्ञान - चारित्ररूप रत्नत्रयी की उपासना करनेवाला श्रावक कहलाता है । जैन किसे कहें ? - 1 जिन-जिनेश्वर परमात्मा को ही अपने भगवान मानकर उनके बताए हुए मार्ग पर चलनेवाले उपासक—आराधक को जैन कहते हैं । संस्कृत में 'जि' धातु जितना अर्थ में प्रयुक्त है । १४ गुणस्थानों के ही मार्ग पर ऊपर उठती हुई आत्मा जो अपने मोहनीयादि कर्मों को जीतकर जिन-जिनेश्वर - तीर्थंकर परमात्मा बन जाती है, उसे ही अपने आराध्यदेव, उपास्य परमेश्वर माननेवाला जैन कहलाएगा। उन्होंने ही यह १४ गुणस्थान का मार्ग दिखाया है । वे स्वयं इसी मोक्षमार्ग पर चले हैं, आगे बढ़े हैं, चलकर ही शुद्ध-बुद्ध-सिद्ध-मुक्त बनने का अपना चरम साध्य साधा है। ऐसे ही परमात्मा ने केवलज्ञान पांकर - सर्वज्ञ बनकर जो मार्ग बताया है वह यह मोक्षमार्ग है । कर्मक्षय का मार्ग है। आत्मा के विकास का मार्ग है। आत्मा से परमात्मा बनने का मार्ग है । इसी मार्गपर चलकर उन परमात्मा का अनुयायी - अनुगामी बननेवाला सच्चा जैन कहलाता है । परमेश्वर परमात्मा जैसे हैं वैसे ही उन्हें मानना । वे जिस स्वरूप में हैं, ठीक वैसे ही उन्हें उसी स्वरूप में मानना, जानना और समझना तथा आचरण के क्षेत्र में उन जिनेश्वर भगवान की ही आज्ञा शिरोधार्य करनी, आज्ञा पालनी, आज्ञानुसार आचरण करनेवाला ही सच्चा जैन कहला सकता है। वीतरागी - सर्वज्ञ अरिहंत - तीर्थंकर को ही भगवान मानना, इससे विपरीत गुणधर्म स्वरूपवाले को भूल से भी भगवान न मानना तथा जो ऐसे सच्चे सही अर्थ में वीतरागी-सर्वज्ञ - कर्मक्षयकृत मुक्त स्वरूप में परमात्मा न हो ऐसे किसी को परमात्मा - भगवान तो मानना ही नहीं है, परन्तु वैसों का बताया धर्म जो आत्मकल्याणकारक न हो, कर्मक्षय कारक - निर्जराप्रधान न हो ऐसे संसारवर्धक धर्म को देश विरतिधर श्रावक जीवन ६१३
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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