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आगे बढनेवाले साधक हैं । मुक्ति के ही उपासक हैं । ऐसे श्रावकधर्म का विशेष स्वरूप यहाँ पर देखना है। "श्रावक विशेष शब्दार्थ
“सम्यग्-दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्गः” इस प्रकार के सूत्र में जब मोक्ष के उपायभूत मार्ग में सम्यग् दर्शन-ज्ञान और चारित्र इन तीन रलों को बताया है । सम्यग् दर्शन का संक्षिप्तार्थक व्यवहार में श्रद्धा शब्द प्रचलित है। सम्यग् ज्ञान के लिए विवेक भी है । विवेक ज्ञानात्मक है । और चारित्र आचरणप्रधान होने से क्रियात्मक है । इस तरह दर्शन-ज्ञान-चारित्र कहो या श्रद्धा-विवेक क्रिया कहो तो भी दोनों बात एक ही है। समानार्थक है । इसी के आधार पर श्रावक शब्द बना है।
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१) सम्यग् दर्शन = श्रद्धा का २) सम्यग्ज्ञान = ज्ञान के अर्थ में विवेक का .....व ३) सम्यग् चारित्र = के अर्थ में = क्रिया का .....क श्रावक शब्द की रचना इस तरह होती है।
• श्रावक
श्रावक श्रा + व + क - श्रद्धा + विवेक + क्रिया सम्यग्दर्शन + सम्यग्ज्ञान + सम्यग्चारित्र
जैन शासन में जिनेश्वर-तीर्थकर परमात्मा के उपासक गृहस्थाश्रमी को श्रावक कहा जाता है । ऐसे श्रावक शब्द की निष्पत्ति ही इस प्रकार के ऊँचे अर्थ-भाव से जुडी हुई है। अतः विचार कर लीजिए कि श्रावक अपने जीवन से कैसा होना चाहिए? श्रद्धा के लिए मन का आश्रयस्थान उपयोगी है। मन का काम विचार करना-सोचना है। श्रद्धा विचारात्मक ज्यादा है । अतः मन को केन्द्र बनाया गया है । वचन भाषा प्रयोग करने का माध्यम–साधन है । ज्ञान का प्रमुख व्यवहार भाषा-शब्द-वचन प्रयोग से होता है । और चारित्र क्रियाप्रधान है। क्रिया के लिए काया (शरीर) की प्रधानता है। शरीर के अंग-हाथ-पैरादि तथाप्रकार की क्रिया करते हैं। अतः ये क्रिया कारक अंग होने के
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आध्यात्मिक विकास यात्रा