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कहकर पूर्वमीमांसा दर्शनवादियों ने यज्ञ-यागादि कर्म से उत्पन्न अपूर्व (पुण्य) द्वारा ऐसे पुण्य की प्राप्ति होती है और आगे भगवद्गीता में ऐसा भी कहा है कि.. "क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशंति जिस पुण्यरूप अपूर्व द्वारा जीव ने मुक्ति को प्राप्त की थी उस पुण्य के क्षीण हो जानेपर.. समाप्त हो जाने पर वह मुक्त जीव वापिस संसार में आता है । ऐसा पूर्वमीमांसक दार्शनिकों का कहना है । यह मत सर्वथा अनुचित है । मिथ्या मान्यतारूप
- जैन दर्शन में मुक्तावस्था प्राप्त होने के बाद जीव पुनःकभी संसार में नहीं आता है। सर्वकर्म मुक्त ऐसे मोक्ष के लिए अनुरूप कर्म निर्जरा का धर्म है । सर्वथा संपूर्ण रूप से कर्मक्षय सर्वविरति धर्म से ही हो सकता है। देशविरति धर्म से उतनी निर्जरा संभव नहीं है, जितनी सर्वविरति धर्म से संभव है । सर्वविरतिधर साधु चारित्र ग्रहण करके संसार का सर्वथा त्याग करके मुक्त हो सकता है । परन्तु देशविरति धर्म का पालन करनेवाला श्रावक गृहस्थाश्रम जीवन में है । अतः सर्वथा संपूर्ण निर्जरा कर नहीं सकता है, और न ही सब पापों से बच सकता है । अतःचारित्ररूप सर्वविरति धर्म का महत्व ही सबसे ज्यादा है।
स्वर्ग देनेवाला पुण्य, और मोक्षदाता-निर्जरा
जैन सिद्धान्त का स्पष्ट कहना है कि पुण्योपार्जन जो किया जाता है वह स्वर्गादि सुखरूप फल देनेवाला है। जबकि निर्जरा जिससे कर्मों का क्षय होता है ऐसा धर्म मोक्ष फल देनेवाला बनता है। अतः जैन दर्शन में पुण्याश्रव एवं निर्जरा दोनों प्रकार के धर्म का स्वरूप दर्शाया गया है। सर्वविरतिधर साधु को वैसा द्रव्य पुण्य उपार्जन करने की आवश्यकता ही नहीं है। उनका लक्ष्य एक मात्र निर्जरा करके कर्मक्षय का रहता है । मोक्ष प्राप्त करने का ही लक्ष्य साधु को रखना चाहिए। क्योंकि पुनः पुण्य उपार्जन करना और फिर स्वर्गादि प्राप्त करना, फिर स्वर्गादि के सुख भोगना । अब हो सकता है कि स्वर्गादि के सुख भोगते हुए फिर से राग-द्वेषादि करके नए कर्म उपार्जन हो सकता है । फिर उन राग द्वेष के कारण बंधे हुए कर्मों के उदय से वापिस पतन होता है । जीव फिर से ८४ के चक्कर में जन्म-मरण धारण करता हुआ घूमता-भटकता है । फिर संसार चलता रहेगा। अतः ऐसे पुण्य उपार्जन करने की अपेक्षा तो मोक्ष की साधना ही ज्यादा श्रेयस्कर है । मोक्ष के अनुरूप धर्म निर्जरा की उपासना करके मुक्ति की प्राप्ति कररा ही श्रेयस्कर है।
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आध्यात्मिक विकास यात्रा