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मुक्ति के अनुरूप धर्म होना चाहिए
धर्म का सैद्धान्तिक स्वरूप कैसा होना चाहिए ? इस विषय में धर्मशास्त्रों में विचार किया गया है । मोक्ष का स्वरूप कैसा है ? वहाँ आत्मा किस स्वरूप में रहती है ? कैसा स्वरूप है ? इत्यादि सब समझकर उसके अनुरूप वैसी है धर्म साधना करनी चाहिए । मोक्ष में आत्मा सर्वथा सर्व पदार्थ संग से मुक्त है। सर्वथा सर्व कर्म मुक्त है । वहाँ पुत्र - पत्नी - परिवार नहीं हैं। किसी भी पदार्थ का संबंधादि नहीं है । सर्वसंगपरित्याग की हुई आत्मा - मुक्तात्मा है। किसी भी प्रकार का कर्म वहाँ नहीं करती है । सर्व कर्म रहित है । सर्वथा संपूर्ण ज्ञानयुक्त सर्वज्ञ है । सर्वथा विषय - कषाय रहित वीतरागी है । सिद्धात्मा सर्वशक्तिमान है । सर्वथा संसार से मुक्त है ।
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ऐसा मुक्तात्मा का स्वरूप मोक्षावस्था में है। ऐसी मुक्ति यदि प्राप्त करनी हो तो तत्साधक धर्म भी कैसा होना चाहिए ? उसके अनुरूप अनुकूल ही होना चाहिए। साध्य के अनुरूप साधना और साधन नहीं होंगे तो साधक को कभी भी साध्य की प्राप्ति होनी संभव ही नहीं है । राजा बनने के लिए तदनुरूप प्रवृत्ति करनी ही चाहिए । यदि चोरी - खूनादि विपरीत - विरुद्ध प्रवृत्ति की, तो निश्चित ही वह जेल में जाकर सजा भुगतेगा । परन्तु राजा नहीं बन पाएगा। ठीक इसी तरह सुख प्राप्ति के लक्ष मात्र से पुण्योपार्जन ही किया तो फिर सिर्फ स्वर्ग-सुख की ही प्राप्ति कर पाएगा, परन्तु मोक्ष की प्राप्ति मात्र पुण्योपार्जन से नहीं होगी। संभव ही नहीं है। मुक्ति की प्राप्ति कर्मक्षय से, निर्जरा से ही होगी । अतः मोक्ष की प्राप्ति के अनुरूप जो धर्म है वही करना चाहिए । उसीकी उपासना उसी तरह की तो ही मोक्ष प्राप्ति का साध्य साधा जा सकता है । अन्यथा विपरीत दिशा में गमन होगा। एकान्त क्रिया पक्षवादी पूर्वमीमांसक दर्शनवादियों ने तो स्वर्ग अपवर्ग दोनों एक जैसा ही मान लिया है। अपवर्ग अर्थात् मोक्ष उसके लिए कोई अलग - स्वतंत्र ही प्रक्रिया होती है और स्वर्ग फल की प्राप्ति के लिए धर्म की अलग ही प्रक्रिया होती है । पूर्वमीमांसकों ने ऐसा कहा है कि—
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यन्न दुःखेन संभिन्नं, न च प्रस्तमनन्तरम् । अभिलाषोपनीतं च स सुखं स्वपदास्पदम् ॥
जो दुःख से भिन्न हैं, तथा अन्य ग्रस्तता - परतन्त्रता नहीं है, तथा अभिलाषा - इच्छानुसार सब कुछ यथाशीघ्र ही प्राप्त हो जाय ऐसा मोक्ष है। इस तरह
देश विरतिधर श्रावक जीवन
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