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________________ “अन्ययोगव्यवच्छेद द्वात्रिंशिका " रूप स्याद्वादमञ्जरी ग्रन्थ के ५ वे श्लोक में स्पष्ट लिखा है कि आदीपमाव्योमसमस्वभावं स्याद्वादमुद्रानतिभेदि वस्तु । तन्नित्यमेवैकमनित्यमन्यदिति त्वदाज्ञाद्विषतां प्रलापाः ।। ५ ।। | दीपक से लेकर आकाश पर्यन्त जगत के सभी पदार्थ नित्यानित्यादि स्वभाववाले हैं । जगत का कोई भी पदार्थ स्याद्वाद की मर्यादा का उल्लंघन नहीं करता है अर्थात् स्याद्वाद की छाप - - मुद्रा से अंकित है । प्रत्येक पदार्थ स्याद्वाद की पद्धति का बराबर अनुसरण करते हैं । स्याद्वाद की चौकट में बराबर बैठते हैं। ऐसे पदार्थों को एकान्तवादी दर्शन एकान्त नित्य, या एकान्त अनित्य ही मानते हैं यह सर्वथा गलत है। दीपक को एकान्त अनित्य ही मानना तथा आकाशादि को एकान्त नित्य ही मानना एकान्त - मिथ्या भ्रमणा है। ऐसी एकान्तवादियों की भ्रमणा से पदार्थ का यथार्थ सच्चा ज्ञान प्रकट नहीं होता है। आंशिक ज्ञान का ही व्यवहार हो सकता है। शेष ज्ञान अंतर्हित- तिरोहित रहता है । सर्वज्ञ की आज़ा का अपलाप करनेवाले एकान्तवादियों का यह प्रलाप मात्र है । जिनाज्ञां का अपलाप है । जैन दर्शन में मुक्ति * णाण किरियाहिं मोक्खो" "ज्ञान + क्रियाभ्यां = मोक्षः" नंदिसूत्र जिनागम में - इस प्रकार ज्ञान और क्रिया दोनों को साथ जोडकर मोक्ष की प्राप्ति बताई गई है । जैसे एक अन्धा हो उसे बिल्कुल दिखाई न देता हो। दूसरा सर्वथा बिना पैर का पंगु हो । ऐसे दोनों मित्र एक साथ बैठे हो ... ऐसे में चारों तरफ आग लगी । T 1 . दोनों के लिए बचने का प्रश्न खडा हुआ । अन्धे के पास चलने की क्रिया है परन्तु ज्ञान के अभाव में अर्थात् न दिखने के कारण चलकर - भागकर कहीं जा नहीं सकता है । और पास देखने की आँखे है, ज्ञान है लेकिन चलने की क्रिया उसके पास नहीं है । अतः आग को देखते हुए भी वह भाग नहीं सकता है । परन्तु अन्धे के खंधे पर पंगु बैठ जाय और दोनों एक हो जाय । अब पंगु ऊपर बैठकर मार्ग दिखाए तथा .. अंधा चलने का कार्य करे तो अग्नि से बचकर दोनों निकल सकते हैं। इस तरह ज्ञान और क्रिया दोनों मिलकर एक होकर मुक्ति की प्राप्ति कराते हैं । यही अनेकान्त मार्ग है। एक मात्र ज्ञान से मुक्ति या एक मात्र क्रिया से ही मुक्ति होती है, ऐसा जैन दर्शन का सिद्धान्त ही नहीं है । मुक्ति के लिए ज्ञान-क्रिया दोनों की उपस्थिति अनिवार्य है । ६०८ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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