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जाता है । जीवन बचानेवाला बन जाता है। ठीक वैसा ही यहाँ पर है । मिथ्यात्व रूपी जहर ग्रस्त ज्ञानादि मारक, संसार बढानेवाले बन जाते हैं। जबकि ... ये ही ज्ञानादि शुद्ध सम्यग् सच्चे बन जाय तो मोक्ष प्राप्त करानेवाले तारक अमृत बन जाते हैं । अब कैसा बनाना यह तो हमारे हाथ में है.
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ज्ञान से दर्शन मजबूत हुआ और दर्शन से ज्ञान शुद्ध-सम्यग् हुआ । इस तरह दोनों सम्यग् सच्चे शुद्ध होने के बाद तीसरा क्रम आता है चारित्र का - आचरण का । चारित्र की शुद्धि का आधार पूर्व के ज्ञान और दर्शन की शुद्धि पर है। यदि ज्ञान - दर्शन शुद्ध सच्चे सम्यग् यथार्थ है तो उस पर आधारित आचरण भी शुद्ध सम्यग् होगा । और यदि ज्ञान- दर्शनादि मिथ्यात्व से ग्रस्त अवस्था में अशुद्ध - मिथ्या - विपरीत ही है तो निश्चित रूप से ऐसे जीवों का आचरण विपरीत, मिथ्या तथा गलत ही होगा यह निर्विवाद सत्य हैं । अतः आप यदि किसीका आचरण शुद्ध सम्यग् बनाना चाहते हो तो कृपया सर्व प्रथम उस जीवविशेष का ज्ञान, उसकी समझ, श्रद्धा आदि को विशेषरूप से शुद्ध, सम्यग् - सच्ची बनानी ही चाहिए। तभी सही परिणाम आएगा। अन्यथा असंभव है ।
मुक्ति किससे ? -
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सम्यग्दर्शन या ज्ञानमात्र से मुक्ति संभव नहीं है । आखिर जीव को सम्यग् आचरण - चारित्र का मार्ग अपनाना ही पडता है। “ज्ञानादेव तु मुक्तिः” ऐसे मात्र ज्ञान से मुक्ति माननेवाले अद्वैत वेदान्ती दर्शनवादियों ने आचार - चारित्र क्रियाप्रधानता का महत्व ही उड़ा दिया है। इसी तरह “प्रकृतिपुरुषान्यथा ख्यातिः मुक्तिः” “पंचविंशतितत्त्वज्ञानादेव मुक्तिः" सांख्यदर्शनवादी ने अपने माने हुए सिर्फ २५ तत्त्वों के ज्ञान से ही मुक्ति मान ली है । यह कहाँ तक उचित है ? यह एकान्तवाद है । एकान्तवाद असत्य - मिथ्या होता है । सम्यग् यथार्थ सत्य प्रतिपादक अनेकान्तवाद होता है ।
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जैन दर्शन एकान्तवादी दर्शन नहीं है। यह पूर्ण अनेकान्तवादी दर्शन है । अनेकान्तवाद तत्त्वभूत पदार्थ के चरम सत्य को प्रकाशित करनेवाला दर्शन है । इसमें ज्ञान की कई पहलुओं से परीक्षा होती है और उस ज्ञान को शुद्ध बनाया जाता है । अशुद्धांश - मिथ्यांश निकाल दिया जाता है । और अन्त में चरमसत्य की मुद्रा से अंकित किया जाता है । पू. कलिकाल सर्वज्ञ पू. हेमचन्द्राचार्यजी म. ने अपनी कृति
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देश विरतिधर श्रावक जीवन
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