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सर्वप्रथम जीव चौथे गुणस्थान पर आकर सम्यग् दृष्टि श्रद्धालु बनता है। उसके बाद एक सोपान और आगे बढकर पाँचवे गुणस्थान पर व्रत-विरति-पच्चक्खाण धारक श्रावक बनता है। बात भी सही है की.. कुछ भी आचरण करने के पहले श्रद्धा सम्यग् सच्ची बननी चाहिए। यदि वह सम्यग् मानेगा तो ही उसका आचरण सम्यग् बन सकेगा। अतः आचरण का आधार सम्यग् श्रद्धा पर है । जितनी श्रद्धा मजबूत उतना ही आचरण आगे सुदृढ होगा।
सम्यग् श्रद्धा का परिणमन
सम्यग्दर्शन शुद्धं, यो ज्ञानं विरतिमेव चाप्नोति। :
दुःखनिमित्तमपीदं तेन सुलब्धं भवति जन्म ॥ . तत्त्वार्थाधिगम सूत्र की आद्यकारिका के प्रारंभ में ही वाचक मुख्यजी पू. उमास्वातिजी म. फरमाते हैं कि..सम्यग् दर्शन-श्रद्धा से शुद्ध ऐसा जो ज्ञान विरति को प्राप्त हो, अर्थात् आचरण की प्रक्रिया में परिणमन हो जाय तो दुःखरूप यह मनुष्य जन्म भी सफल हो जाय । यहाँ पर ज्ञान का शुद्धिकरण दर्शन से बताया गया है । आप कितना जानते हैं ? यह महत्व का नहीं है परन्तु आप कैसा जानते हैं ? इस बात का ज्यादा महत्व है। क्योंकि इसमें गुणवत्ता की कक्षा आती है । शायद कोई बहुत ज्यादा, दुनियाभर के विषयों को जानते होंगे परन्तु किसी भी विषय में यदि ज्ञान सच्चा न हो तो इतना ज्यादा जानने का भी क्या अर्थ है ? और यदि कोई थोडा ही जानता हो, कुछ कम विषय ही जानता हो परन्तु पूर्ण सचोट सम्यग् यथार्थ वास्तविक स्वरूप में सत्य जानता हो तो यह पहलेवाले के अपेक्षा हजार गुना ज्यादा महत्वपूर्ण है। इसलिए जाननेवाला मात्र पदार्थ का ऊपरी-ऊपरी ज्ञान रखता है। या हो सकता है कि गलत-विपरीत भी जानता हो।
. जी हाँ, मिथ्यात्वी का भी ज्ञान है तो ज्ञान की ही एक जाती। भले ही वह गलत हो, विपरीत हो यह अलग बात है। लेकिन वह भी कहलाएगा तो ज्ञान ही। सिंह का बच्चा भी कहलाएगा तो सिंह ही । वह बिल्ली नहीं कहलाएगा। इसीलिए तत्त्वार्थकार ने तत्त्वार्थ के प्रथम सूत्र “सम्यग् ज्ञान-दर्शन-चारित्राणि मोक्षमार्गः” में सम्यग् शब्द का संयोजन आगे किया है। मात्र ज्ञान-दर्शन-चारित्रादि मोक्ष के कारण नहीं बनते हैं, यदि ज्ञानादि मिथ्या है तो संसार के कारण बनते हैं और यदि वे ही सम्यग् सच्चे बन जाते हैं तो मोक्ष के कारण बनते हैं। जैसे जहर मारक होता है । मृत्यु का कारण बनता है, परन्तु उसे ही यदि शुद्धतम कक्षा का करके औषधीय गुणयुक्त कर दिया जाय तो... वही तारक भी बन
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आध्यात्मिक विकास यात्रा