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________________ प्रमाण में धर्म का पालन हो सकता है शेष प्रमाण में नहीं । ४०% हिंसादि पापों का त्याग हो सकता है । लेकिन शेष ६०% पापों का सर्वथा त्याग संभव नहीं है। जबकि साधु अपने जीवन में १००% पापों का सर्वथा त्याग कर सकता है। साधु एवं श्रावकजीवन में आसमान-जमीन का अन्तर है । मर्यादाएँ भिन्न-भिन्न हैं । सर्वविरति में संपूर्ण सूक्ष्म रूप से सब कुछ पालना है। जबकि देशविरति धर्म में श्रावक के लिए सब-कुछ अल्प-स्थूलरूप से पालना है । ठीक है, फिर भी दिशा एक ही है । धर्म एक ही है । श्रावक धर्म बहुत ही आसान सरल है, सीमित मर्यादित है । जबकि साधु धर्म बिना किसी भी प्रकार की छूट छाट का है। सर्वथा किसी भी प्रकार का पाप न करने की प्रतिज्ञावाला साधु जीवन है । दो प्रकार के श्रावक व्रतधारी श्रावक 11 श्रद्धालु श्रावक २) ५ वे गुणस्थानवर्ती १)४ थे गुणस्थानवर्ती प्रथम मिथ्यात्व के गुणस्थान से तीन करणों को करके, ग्रन्थिभेद करके सम्यक्त्व पाकर जीव चौथे अविरत सम्यग् दृष्टि गुणस्थान पर आता है । यहाँ प्रथम कक्षा का श्रावक बनता है । इस श्रावक में अभी आचार-व्रत-नियम-पच्चक्खाणों का पालन आदि कुछ भी नहीं आता है । लेकिन श्रद्धा से वह परिपूर्ण है । ज्ञान सही है, समझ सच्ची है और उस विषय में मान्यता भी सच्ची यथार्थ हो गई है । जब जानना और मानना दोनों की कक्षा बिल्कुल सही-सम्यग् बन जाय फिर कोई प्रश्न ही नहीं रहता है । १. संसार में कुछ जीव जानते हैं परन्तु वैसा मानने के लिए तैयार नहीं हैं । २. दूसरे प्रकार के जीव कुछ मानते हैं, लेकिन वे यथार्थस्वरूप जानने के लिए तैयार नहीं है । ३. तीसरी कक्षा के कुछ जीव सर्वथा निषेधात्मक वृत्तिवाले हैं, जिनका कहना है कि कुछ भी जानने की जरूरत नहीं है, और कुछ भी मानना भी नहीं चाहिए । ४. एक मात्र चौथे प्रकार का जीव ही ऐसा है जो जानेगा तो भी सम्यग् यथार्थ और मानेगा भी पूरा सम्यग् यथार्थ । पदार्थ का स्वरूप अपने आप में ठीक जैसा है वैसा ही यथार्थ यह जानता है, और ठीक यथार्थ वास्तविक स्वरूप मानता है। जैसा और जितना जानता है, वैसा और उतना पूरा मानता है । यही चौथे प्रकार का जीव सम्यग् दृष्टि शुद्ध सच्चा श्रद्धालु माना जाता है। शेष सभी तीनों प्रकार के जीव मिथ्यात्वी माने जाते हैं। देश विरतिघर श्रावक जीवन ६०५
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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