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________________ में जीव को जो विशेष आनन्द आता है उसे 'विरति धर्म' कहते हैं । अनादि की आदत बदल गई और जीव जिस पाप की प्रवृत्ति में सुख मानता था, तथा इसी वृत्ति से पाप करता ही जाता था, पापरुचि बना हुआ था, पाप करने की मस्ति थी, पाप का आनन्द था वह सब बदलकर ठीक उल्टा हो गया। अब पाप न करने में मजा आती है। पाप से बचकर धर्म की प्रवृत्ति करने में विशेष आनन्द आता है अतः विरति धर्म का नामकरण किया है । दिविशेष अर्थ में है । पापादि में तो सामान्य आनन्द आता था मिथ्यात्वी जीव को । अब वह प्रक्रिया सारी बदल गई और पाप न करने में, पाप छोडने में, पाप के त्यागरूप धर्म की प्रवृत्ति में पाप छोडकर पुण्य करने में विशेष आनन्द आने के कारण विरति धर्म की प्राप्ति होती है । 'विरति' शब्द पाप निवृत्ति अर्थ में रुढ हो गया है । - भगवान की विरतिप्रधान देशना चारों घनघाती कर्मों का क्षय करके वीतरागता केवलज्ञानयुक्त सर्वज्ञतादि प्राप्त होने पर तीर्थंकर भगवान समवसरण में बिराजमान होकर देशना देते हैं। धर्म का प्रतिपादन करते हैं। धर्म की स्थापना करते हैं । उस समय पाप की निवृत्ति प्रधान विरति धर्म की प्रधान रूप से देशना दी । पाप की निवृत्ति, हिंसादि पापों का त्याग, आरंभ - समारंभादि हिंसारूप प्रवृत्ति का निषेध करते हुए प्रभु ने विरति धर्म का मार्ग बताया। वैसे भी मोक्ष की तरफ अग्रसर होने के लिए जीवों को पाप की निवृत्ति ही करनी चाहिए। और धर्म - पुण्य मार्ग की प्रवृत्ति करनी चाहिए। ऐसे धर्म मार्ग को विरति धर्म कहा है । जो जीव को पाप से सर्वथा दूर रखता है बचाकर सुरक्षित रखता है I I भगवान श्री महावीरस्वामी को वैशाख शुद १० को संध्या के समय केवलज्ञान की प्राप्ति हुई । और कैवल्य की प्राप्ति से सर्वज्ञ बनकर उन्हों ने देव निर्मित समवसरण में. प्रथम देशना ही 'विरतिधर्म' की दी । उस समय देशना श्रवण करनेवाले समवसरण में सभी स्वर्ग के देवता ही थे । उनको पाप की निवृत्तिरूप तथा धर्म की प्रवृत्तिरूप देशना के अनुरूप आचरण करना असंभवसा लगा। वैसे भी देवता अविरति के उदयवाले रहते हैं अतः उस असंभवता के कारण देवताओं ने विरति मार्ग स्वीकार नहीं किया, अतः भगवान महावीर की प्रथम देशना निष्फल मानी गई है। लेकिन दूसरे ही दिन सुबह अपापानगरी में रचे गए समवसरण में .. नगरवासियों की प्रधान उपस्थिति थी । वह विरति रूप धर्म उन नर-नारियों को रुचिकर - सम्यग् लगा, और करीब ४४४४ लोगों ने चारित्र धर्म - दीक्षा अंगीकार की । सर्वथा संपूर्ण विरति धर्म स्वीकार किया । देश विरतिधर श्रावक जीवन ६०३
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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