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________________ अप्पा नई वेयरणी, अप्पा मे कूडसामली । अप्पा कामदुहा घेणू अप्पा मे नन्दणं वणं ॥ उत्तरा २०/३६ आत्मा स्वयं ही सुख और दुःखों का कर्ता है और उनका नाश करनेवाला भी स्वयं ही है | सन्मार्ग पर चलनेवाली, पाप कर्म न करनेवाली आत्मा स्वयं ही अपनी मित्र है । और पापकर्म करनेवाली वैसे मार्ग पर न चलनेवाली आत्मा स्वयं ही अपनी शत्रु भी है । आत्मा ही नरक की वैतरणी नदी है । यही आत्मा कूटशाल्मली वृक्ष है । तथा मेरी आत्मा ही कामधेनु है और नन्दनवन भी यही है। इससे एक बात बिल्कुल स्पष्ट होती है कि आत्मा harat बाहरी व्यक्ति शत्रु या मित्र नहीं है। हम निरर्थक बाह्य व्यवहार में किसीको मित्र, किसीको शत्रु कहते हैं, गिनते हैं, मानते हैं और निरर्थक उनके साथ राग-द्वेष बढाते हैं । यह भव-संसार बढाने जैसा है । इसके बजाय जब हम भयंकर पाप की प्रवृत्ति करते हुए कर्म बांधते हैं तब मेरी आत्मा का अहित अधःपतन करनेवाला मैं स्वयं ही मेरा शत्रु हूँ ऐसा मानना चाहिए । और जब उन पाप कर्मों का क्षय करने लगता हूँ तब मैं ही मेरा परम मित्र हूँ । यह मानना उचित लगता है । अतः बाहरी संसार में कोई तेरा मित्र, शत्रु नहीं है । तेरे अशुभ कर्म तेरे शत्रु हैं और कर्मनिर्जरा की प्रक्रिया के समय तू ही तेरा मित्र है। यह सब अपने पर ही आधारित है । विरति धर्म की उपयोगिता 1 रति शब्द आनन्द - सुख के अर्थ में प्रयुक्त होता है । आज दिन तक मिथ्यात्व के उदय में जीव को बाह्य पुगलों में, पौगलिक पदार्थों में जो सुख की अनुभूति होती थी, विषय-वासना के विषय में ही सुख की अनुभूती होती थी। अरे ! इतना ही नहीं पाप की प्रवृत्ति में भी सुख की अनुभूति होती थी । वह एक मात्र मिथ्यात्व के कारण थी । मिथ्यात्वी जीव की यही एक पहचान है कि.. वह पाप की प्रवृत्ति में ही सुख - मजा मानता है । जबकि सम्यग्दृष्टि जीव का लक्षण है कि वह पाप करना मन से पसंद नहीं करता है, ऊपर से पाप की प्रवृत्ति करनी भी पडे तो उसका दिल अन्दर ही अन्दर रोता है। वह पाप की गलत प्रवृत्ति में कभी भी सुख आनन्द नहीं मानता है । ठीक इसके विपरीत वह दुःखी होता है । | 'रति' सुख और वह भी पाप की गलत प्रवृत्ति में मानना यह जीव अनादि - अनन्तकाल से मानता आया और भोगता भी आया। एक मात्र मिथ्यात्व के कारण परन्तु सम्यग् दर्शन की प्राप्ति के बाद यह प्रक्रिया बदल जाती है । पाप को छोडने ६०२ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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