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________________ आचरण बहुत ही आसान होता है। जहाँ इस श्रेष्ठ कक्षा का समर्पित भाव हो वहाँ स्व इच्छा सर्वथा गौण होती है । आज्ञा ही प्रधान होती है । अतः साधक स्वेच्छा को पूरी करने के लिए कभी भी आग्रह नहीं रखता है। एक मात्र आज्ञा की ही प्राधान्यता रहती है। . “आणाए धम्मो” आखिर धर्म की व्याख्या करते हुए यह स्पष्ट कर दिया है कि..“आणाए धम्मो" आज्ञा में ही धर्म है । सर्वज्ञ वीतरागी जिनेश्वर तीर्थंकर परमात्मा जैसे महापुरुष की आज्ञा स्वीकारना तथा तदनुरूप आचरण करना ही धर्म है । “आणाए धम्मो” व्याख्या से आज्ञा में धर्म कहा लेकिन कहीं पर भी शास्त्रकार महर्षि ने “इच्छाए धम्मो” नहीं कहा । इच्छा में ही धर्म है ऐसा नहीं कहा । इच्छा यह पूर्वोपार्जित मोहनीय कर्म के उदय के फल के कारण है । अतः इच्छा होनी और हुई इच्छा के अनुरूप जीवन जीने को धर्म कैसे माने ? इच्छा राग-द्वेष की बनी हुई होती है। हाँ, मिथ्यात्वी जीव के मन की अपनी मनघडंत व्याख्या होती है कि मन की इच्छा की पूर्ति करना ही धर्म है । अतः मिथ्यात्वी जरूर इच्छाप्रधान धर्म मानता है । लेकिन सम्यग्दृष्टि श्रद्धालु साधक कभी भी इच्छाप्रधान धर्म नहीं मानता .. वह देव गुरु की आज्ञाप्रधान ही धर्म मानता है । अतः धर्म को, आज्ञा को तथा आज्ञा दाता देव-गुरु को सर्वथा समर्पित रहता है। सर्वज्ञ केवली भगवान अनन्तज्ञानी–त्रिकालज्ञानी होते हैं, अतः उनके विषय में कभी कोई शंका भी नहीं होती है । वे जो भी जैसी भी आज्ञा करेंगे.. बहुत ही उचित योग्य और सही आज्ञा ही करेंगे। जो तीनों काल में सभी जीवों के लिए समान रूप से उपकारी-श्रेयस्कारी रहेगी। अतःआज्ञा के केन्द्र में वीतरागी सर्वज्ञ प्रभु और उनकी आज्ञा .. तथा वह आत्मकल्याण के विषय में..बस, फिर तो पूछना ही क्या? साधक इस संसार समुद्र को तैर सकता है । पार उतर सकता है । पू. हेमचन्द्राचार्यजी वीतराग स्तोत्र में कहते हैं कि “आज्ञाराध्धा विराध्या च शिवाय च भवायच" । अर्थात् आज्ञा की आराधना शिवाय = कल्याण के लिये होती है तथा विराधना भव = संसार की वृद्धि के लिये होती है। दोनों ही प्रकार के फल की प्राप्ति होती है । कौन सा और कैसा फल प्राप्त करना उसका आधार आपकी वृत्ति बुद्धि पर होता है । यदि मिथ्यावृत्ति होती है तो वह आज्ञा की विराधना करके भव-संसार की वृद्धि करेगा। और यदि साधक सम्यग्दृष्टि होगा तो वह सर्वज्ञ आज्ञा का अक्षरशः पूर्णरूप से पालन आराधन करेगा और स्वआत्मा का कल्याण करेगा। अतः जैसा फल प्राप्त करना चाहते हो वैसा आचरण आपको करना चाहिए। देश विरतिधर श्रावक जीवन ५९७
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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